प्रेमघन - सर्वस्व भाग - 1 | Premaghan - Sarvasv Bhag - 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
680
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about बदरी नारायण उपाध्याय - Badari Narayan Upadhyay
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)६ है )
छाई जिन पर कुटिल कटीली बेलि झनेकन ।
गोल गोली भेदि न जाहि जाहि वाहर सन ॥
दूसरे स्थान पर कवि 'मकतवखाने” का वड़ा ही चित्ताकर्पक
चर न करता है--
“'पढ़त रहे बचपन में हम जहूँ निज भाइन सँग ।
अझजहुँ झाय सुधि जाकी पुनि मन रँगत सोई रँग ॥
रहे सोलबी साहेब जहूँँ के झ्तिसय सजन ।
बृढ़े सत्तर बत्सर के पे तऊ पुप्॒ तन ॥|
इसी प्रकार “अलौकिक लीला” काव्य में भक्ति रख में लीन हो
कर कवि ने छृप्सुचरित का वर्णन वड़े मनोहर ब्योरों के साथ
किया है ।
चौधरी साहव स्थान स्थान पर शझ्नुप्रास और व्ुमेत्री
गद्य तक में चाहते थे । एक वार झानन्द-कादस्विनी के लिए मैंने
सारत बसंत नाम का एक पदथवद्ध दृश्य काव्य लिखा, उसमें भारत
के प्रति बसंत का यह वाक्य उपालस्भ के रूप में था--
बहु दिन नई बीते सामने सोइ झायो ।
गरजि. गजनबी ते गवं सारो गिरायो ॥
दूसरी पंक्ति उन्हें पसन्द तो बहुत झाई पर उन्होंने उदासी के
साथ कहा--“हिन्दू होकर झाप से यह लिखा कैसे गया” ?
बे कलम की कारीगरी के कायल थे । जिस काव्य में कोई
कारीगरी न हो चह्द उन्हें पीका लगता था । एक दिन उन्होंने एक
छोटी सी कविता झपने सासने बनाने को कहा; शायद देशदशा
वर | मैं नीचे की यदद पंक्ति लिख कर कुछ सोचने लगा--
पविकल भारत, दीन शारत, स्वेद गारत गात ।”
User Reviews
No Reviews | Add Yours...