तीर्थंकर महावीर और उनकी आचर्य परंपरा भाग 3 | Tirthankar Mahaveer Aur Unaki Acharya Parampara khand - 3

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आमुख भारतोय सस्कृतिमे आहंत सस्कृतिका प्रमुख स्थान है। इसके दर्शन, सिद्धात, धर्म और उसके प्रवत्तंक तीर्थकरो तथा उनको परम्पराका महत्त्वपूर्ण अवदान है। आदि नीर्थकर तऋषभदेवसे लेकर अन्तिम चौवीसवे तीर्थंकर महावीर और उनके उत्तरवर्ती आनार्योने अध्यात्म-विद्याका, जिसे उपनिपद्‌्-साहिंत्यमे* 'परा विद्या' (उत्कृष्ट विद्या) कहा गया हे, सदा उपदेग दिया और भारतकी चेतनाको जागृत एव ऊर्ष्व॑मुखी रखा है । आत्माकों परमात्माकी ओर ले जाने तथा शाइवत सुखकी प्राप्तिक लिए उन्होने * अहिंसा, इन्द्रियनिग्रह, त्याग मोर समाधि (आत्मलीनता) का स्वय आचारण किया अर पश्चातू उनका दूसरोको उपदेश दिया । सम्भवत इसीसे वे अध्यात्म-शिक्षादाता भर श्रमण-सस्कृतिके प्रतिष्ठाता कहे गये हैं । भाज भी उनका मागंददयंन निष्कलुष एव उपादेय माना जाता है । तीथैकर महावीर इस सस्कृतिके प्रवुद्ध, सबल, प्रभावशाली गौर अन्तिम प्रचारक थे । उनका दशंन, सिद्धान्त, धर्म भौर उनका प्रतिपादक वाइमय विपुल मात्रामे भाज भी विद्यमान है तथा उसी दिशामे उसका योगदान हो रहा है। गतएव बहुत समयसे मनुभव किया जाता रहा है कि तीर्थंकर महावीरका सर्वाज्धपूर्ण परिवायक ग्रन्थ होना चाहिए, जिसके द्वारा सबंसाघारणको उनके जीवनवृत्त, उपदेश और परम्पराका विशद परिज्ञान हो सके । यद्यपि भगवान महावीरपर प्राकृत, सस्कृत, अपभ्रद्म और हिन्दीमे लिखा पर्याप्त साहित्य उप- रव्घ है, पर उससे सवसाघारणकी जिज्ञासा दान्त नही होती । सोभाग्यकी वात है कि राष्ट्रने तीथं ड्रूर वद्ध॑मान-महावी रकी निर्वाण-रजत- दाती राष्ट्रीय स्तरपर मनानेका निश्चय किया है, जो आगामी कालिक कृष्णा गमावस्या वीर-निर्वाण सबत्‌ २५०१, दिनाडू; १३ नवम्बर १९७४ से कात्तिक १. घर्मतीर्थकरेम्योश्स्तु स्याद्ादिम्यो नमोनम । ऋषभादि-महावीरान्तेम्य स्वात्मोपलब्घये ॥। भट्टाकलड्रूदेव, लघीयस्त्रय, मज्भलपद्य १ । २. मुण्डकोपनिषद्‌ १1१1४१५ । ३. स्वामी समन्तभद्द, युक्त्यनुद्यासन का० ६ । आमुख . १३




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