काव्य में अप्रस्तुतयोजना | Kavya Me Aprastutayojna

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Kavya Me Aprastutayojna by पं रामदहिन मिश्र - Pt. Ramdahin Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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काप्य में श्प्रस्तुतयोजना बहुत व्यापफ क्षेत्र है। शेप श्रग्रस्तुतयोजना एँ प्राय; शर्म से विशेष सम्नरभ रखती हैं । दर ऑप्रस्तुतयोजना चादर से लायी जानेवाली सारी घलनुद्रों को अदण फरती दै न्वादे प्रप्र्ुत का फैसा ही रूप क्यों न दो | श्रग्रस्तुत विशेष्य हो, विशेषण दो, क्रिया दो, मुद्दाविरा दो, चादे शौर कुछ दो, इसके भीतर सब समा जाते हैं | विशेष्य को दी लीजिये... १ छाया की 'ाखसिंची नी, मेघों का मत्तवालापन |... २ पीले मुख पर संध्या के वे किरणों की फुलमड़ियाँ । मदादेवी इनमें 'ाँलमिचौनी' श्रौर 'फुलभाड़ियाँ रूपक के रूप में श्रायी हैं पर, थे हैं विशेष्य | 'श्राजमिची नी पछायार का ,चदद दृश्य उपस्थित करती, है जिस में कमी वद्द इट जाती हे दौर कभी श्रा लाती है । इस खेल में यद्दी होता हैकि कभी ग्रॉ्लें मंद लाती हैं और कमी खुल जाती हैं | संध्याकाल में किस्णें भी छूटी पढ़ती हैं नेसे कुलभड़ियों से चमकती तितलियाँ छूट़ती हैं । इनमें भी उपमान की वचातें के तो कोई श्रनुचित नहीं। दोनों में टी उपमान चर्तमान हैं 1 सामिप्राय विशेष्यकथन में “परिकरांकुर? श्रलंकार दोता है । दी सिकले भाग्य हमारे सूसे, वत्स दे गया तू हा किया मुझे कैकेयी ने, दा कलेंक कस लगा यहाँ केकेयी सामिप्राय विशेष्य है | इसे गौतम के न पर महा शुः तपस्या-के लिये लाने पर उनकी साता मददाप्रजावती ने कहा हा राम को वनवास दिया था ! मैंने भी वैसे सिम का यी ने ट गया करी की त जी मी उपमान शब्द का अयोग किया ला सकता है कर व्य पण विशेयण अमस्तुतयोलना की ही वात्त कही ज्ञा स्ण ही रदेगा। इसमें न तो. सकती है और न उपमान की ही विद्रमें '्मौ मरकत की छाया सोने, चॉ: दी) पर थ चाँदी का सर्यातप है हिम परिमल की रेशमी मायु शतरत्नछाय खगचिथिव दर पं में नये रेशमी” वायु कइते हैं तब वायु की कोमलता चिकणुत्त का ड्ै नामक एक




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