धर्मशर्माभ्युदय | Dharmasharmabhyuday

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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के 3 श्घू भमंशम्युद्य उमय कवि श्रेष्ठ होता है | परन्तु यायावरीय इस मतसे सदमत नहीं हैं। उनका करना है कि “स्वविपये सर्वों गरीयान्‌ । नदि राजदंसश्रन्दिकां पानाय प्रमवति, नापि 'चरोरो्दूम्यः क्ौरोदरणाय । यच्छाखकविः कान्ये रससम्पढ़ विष्धिनसि, यत्काव्यकदि. शास्त्रे ठसंककंशमप्यर्थसुक्तिवेचिष्येय श्लथयतिं । उभयकविस्तूमयोरपिं वरीयान्‌ यधुमयन पर पवीण- स्याद” अपने श्रपने पिपयमें सभी श्र हैं । क्योंकि राजहंठ चन्द्रिकीका पान नहीं कर सकता शरीर च केर पानीसि दूघको श्वजंग नहीं फर सकता । दोनोंमें भिन्न भिन्न दो प्रकारपी शक्ति हैं. जिससे वे दोनों श्रेष्ठ हें। शास्र कवि बाव्यमे रसका नियन्द देता है श्ौर वाव्य कप सफेसि रठिन श्थंकों झपनी सरत उचियोकी विचित्रतासे सूदुल बना देता है । हों; उमय कवि 'दोनोंमें श्यवश्य श्रे प्र है यदि यह दोनों विपर्यो में ऋ्रत्यन्त चतुर हो । काब्यवा प्रयोजन-- इस दिपयका जितना श्रच्टा सग्रद मम्मट मटने श्रपने 'काव्य प्रकाश में किया है उतना शायद किसी दूसरेने नहीं क्या है । “काव्य यशसे्थकते व्यवारविदे शिदेतरक्षतयें 1 सच परिनिद्धंतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुज् ॥” बाव्य यशकें लिए, व्यावदारिक शनके निए, द्मगल दूर करनेके लिए, तालालिक श्रानन्दके लिए और कान्तातम्मिततया-ख्रीके समान मघुर दालापसे उपदेश देनेके लिए:--सत्पय पर लानेरे लिए, निर्मित किया जाता दे--स्वा जाता दै। द्याज, काव्य-रचनाके पारण ही पालि दासकी सुन्दर कीर्ति सब्र जगदद छाई हुई है । राजा भोज उत्तम काव्यकी रचनासे ही प्रलन दोरर कवियोने लिए. 'प्रत्यक्षरं लक्षं ददो” एक-एक अक्षर पर एव एक लाख रुपये दे देवा था | काव्यके पढनेसे ही देशकी प्राचीन श्रर्वाचीन सम्यताके व्यवदारका प्रता चलता है । काव्यरचनावे




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