स्वप्न और सत्य | Swapna Aur Saty

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बर उस पर बुरी तरह हावी हो गयी । छाया का मन परिवतन जो एवं यार आरम्भ हुआ, बह फिर रुका नहीं । परतु आइ्वय '. उसकी सुल गती आाखा में सबग्ासी ज्वासा के स्थान पर अधानव विक्यता और वेवसी के आंसू छलक आगे । परित्यक्त एव तिरस्कत होने की यह यातना उसकी रंग रग में समा गई! उसने वड यल से भपनें होठां को भीचना चाहा, तार्कि अपमान की यह दारुण यत्रथा एक चीख के रूप में मु से न नियल पड । पत्ति ने भागे बढ़ कर जब उसके निर्जीव से पड हाथो को अपने हुथोमे लेना चाहा तो बह स्वय को राके न सकी । नःित की तरहूं बस खावर उसने एक भीषण फु फ्कार छाड़ी--'मर बाद सुम माया मा अवदय रप ल रखना । भूलियेगा नहीं मह गुस्सा--यह कड,वाहुट ! दाना एक साथ स्तब्प रह गये । माया तडप कर सयते ने रहे सकी । द्वारका का आमाहीन मु है एकदम सूख गया 1 यधपि पति ने तनिक सम्हूत वर उसकी पीठ का बड़ प्यार से सहलति हुपे जद कण्ठ से कहा-- ऐमा महीं महते छाया रानी ! मैं किसी भी कीमत पर प्राण-पण से काशिय करके तुम्हें बचाऊ या । तुम्हें चित्ता करने की कोई जरूरत नहीं ।* इतना सुनते ही छाया अवस्मातु चरण स्वर से सिसव पड़ी । द्रविति भाव से पति ने उसका सुह बद चरने का प्रयतल किया । सूखे पपढ़ो जमे होठों को अपने रसीले अघरों से टटोलते हुये द्वारका फिर बहने लगा--'मेरा विश्वास करो छीय। 1 मेरा विश्वास ।' इस पर छाया और भड़क उठी । विस्मय-जनक ढड् से व करण-माच अपने आप तिरोहित ही गया । उसके स्थान पर लास लाल आया वी प्रतिहिपक दृष्टि पुन चमवसे लगी 1 घना गौर आइतिया / १:




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