जीवन भाग -३ | Jeevan [ Part - Iii ]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रपम भेंट १७ नज़र से थवश्य देखा । उन आँयो मे कया था, इसे तो कानजी न समझ सवा, पर उसने यह अवश्य अनुभव किया ५ि मिलती हुई नजर ने उसके हुदय से वुछ उठा लिया है और तले मे वुछ रख दिया है । दोनो ने एवं दूसरे को फिर देखा और इसके बाद चारा ही याँखें नीचे झुक गई । अब तो जैसे होठ भी सिल गए थे । हृदय थी गति बदल चुकी थी । पूरी तेजी से धूमता हुआ चथ धीमा पढ़ा । जीवी के दाद कानजी नीचे उतरा, पर अपने नीचे उतरने था भान तो उसे तय हुआ जव ऊपर बैठे हुए हीरा ने या कहा बि वयो कानजी ” अभी से ?” लेविन अब वया हो सकता था ? जगह सो भर चुका थी । जगह होती तो भी वदाचिदु वह बब न बैठता । स्वग में हा जाने का उसे जितना हप था, उतना ही उस स्वग स अलग होने का शोव भी था । बुद्ध स यडे कानजी वे काना मे फिर वही मधुर गाधाज पढी-- नो अपना पैसा ।” कहती हुई जीवी हाथ बढ़ाये खडी थी । नातडों ने झिडकती हुई नजरा से जीवी को देखा । हँसवर वोजा--*यसे हो यही समयना जि एक थार मेरी भोर से हो बैठी थी 1” जीवी ने कुछ हुज्बत न करके हाथ पीछे खरोंच रिदा 1 सेकिट घास खड़ी मणी से वोले बिना न रहा गया--“थों दिन जाललरनाण के किसी वा पैसा रखा जाता होगा ?” यो. ढहठर इुस्टयती हु तर कानजी की ओर देखने लगी । “जान पहचान न होती तो इनक पैसे हल के सलिए ेय हाथ ही बयो बढ़ता ? * वहुवर हंसते हुए कानडी न काटी कै; रे आँख मारे भौर उसके सुहाग रहित हाथा की आर रहे लए “अरी रहने दे । नहीं ठा, दा शर अडुडर साएा न जीदो दो बागे बिया । चलते चनत दाजी--िटट की दियी एके छा सीर कया * ्ि “चल, चुप रह 1” बदली दूई जटी नछे हुए जौर चिप को देखा । दे चर




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