लोई का ताना | Loi Ka Tana

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Loi Ka Tana by रांगेय राघव - Rangaiya Raghav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नह « “क्यों नहीं !? परिडत ! क्या कोई बुरा काम करते हैं जुलाहे ? तुम ने उन्हें नीचा समझा तो वे क्या करते ?” “्ररे तुम शाक्त, वाममार्गी, देवीपूजक ! ब्राह्मणों के पुराने विरोधी !! मुसलमान न होश्रोगे तो कया करोगे ?” 'मैं एक बात पूछुलूँ, परिडत !' “पूछो । थे “बताओ ! दिंदुश्धों में जो नीचे हैं, पर मुसलमान नहीं हुए, वे कहाँ रहें ?” वेशूद्धहैं।' प्तो जो मुसलमान हो गये वे ?' पे घर्म नाश करके म्लेच्छां के, यवनों के दास बन गये, उन्होंने तो श्रपने यह लोक श्रोर वदद लोक दोनों बिगाड़ लिये ।? कमाल ने कद्दा : “यही मेरे पिता कहते थे। वे कहते थे कि भाइयों ! तुम नीचे माने जाते हो । हिंदू श्रपने देश के वासी हैं । वे तुम्हें नीच मानते हैं । मुसलमान शासक परदेसी हैं । श्रगर वे तुम्हें मुसलमान बनाते हैं श्रौर तुम मुसलमान बन कर श्रपने को श्राज्ाद समभने लगते हो, तो क्या उससे समस्या का हल हो जाता है ?' कया मतलब ।' “अरे यह तो साफ है । मान लो मैं जो जुलाददा हूँ हिंदुश्धों में नीच माना जाता हूँ । श्रगर में मुललमान दो जाता हूँ तो हिंदू मुभ्ते बात बात में दबा नहीं सकते, लेकिन फिर भी श्रादमी श्रादमी के बीच दरार बढ़ती चली जाती है ।? 'कैंसी दरार ? यह दरार श्राज की है ? सनातन काल से भगवान नें यदद दरार-बना रखी है रे जुलादे ।! “भगवान ने कि श्रादमी ने ” प्य्रादमी ! श्रादमी क्या होता है ! श्रादमी तो निमित्त है, जो होता है बह श्रसल में उसी की इच्छा है ।? लेकिन मेरे पिता कहते थे'””””””* “रे तेरे पिता कदते थे !! उसने झूद्रों श्रोर जुलाहे कोलियों' की भीड़ इकट्टी करली, वर्ना जुलादे का क्या कदना, क्या न कहना । दिश । कया समय




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