अध्यात्म रत्नत्रय | Adhyatma Ratntrya
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
224
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)समयसार गाथा ३२० ] 1 ७
तथा चोकत॑ सिद्घान्ते - ' निष्क्रिय: शद्धपारिणाभिकः' निष्क्रिय
इति को$्थं: ? बस्घकारणभुता या क्रिया रागादिपरिणति:
तद्ठूपो न राव ति, सोक्षकारणसता च क्रिया शद्धसावनापरि-
णतिस्तद्वूपश्च न शवति । ततो ज्ञायते शद्धपारिणासिकभावों
ध्यंयरूपो रावति ध्यावरूपो न रावति । कस्मात ? ध्यानस्य
चिनश्वरत्वात् तथा योगीन्द्रदेवेरप्युक्त॑ -
णवि उपज्जइ णवि सरइ बंध ण सोक्ख करेइ ।
जिउ परमत्थे जोइया जिणवर एउ. राणेइ ॥
किच विवक्षितैकदेशशुद्धनयाश्रितेयं भावना सिविकार-
स्वसंबेदनलक्षणक्षायोपशमिकज्ञानत्वेन.. यद्यप्येकदेशव्य क्तिरूपा
रगवति तथापि ध्यातापुरुष: यदेव सकलनिरावरणमखंडेक-
प्रश्न - निष्क्रिय का क्या भ्रथ है ?
उसर - रागादिमय परिणतिवाली बन्घ की कारणुशुत
क्रिया रूप नही होना तथा मोक्ष की कारणभुत शुद्ध भावनारूप
परिणति रूप भी नहीं होना । इससे यह जाना जाता हूँ कि
शुद्ध पारियसामिक भाव ध्येयरूप हैं परन्तु ध्यानरूप नहीं है
क्योकि ध्यान विनादशील हें । जेंसा कि योगीन्द्रदेव ने भी भ्रपने
परमात्मप्रकाश मे लिखा है -
हे योगी ! परसार्थ से, जन्मे मरे न जीव ।
बन्घ-मोक्ष करता नहीं, जिनवर कहें सदीव ॥।
अर्थात्-हे योगी ! सुन, परमायें दृष्टि से देखने पर यह
जीव न तो उपजता हे, न मरता हे, न बन्घ ही करता हे, न
मोक्ष ही प्राप्त करता हे - ऐसा श्री जिनेन्द्र भगवान कहते है ।
ग्रौर विशेष कहते हैं कि विवक्षित एक देश शुद्धनय के
भ्राश्रित होने वाली यह भावना निर्विकार स्वसवेदन लक्षण
_ क्षायोपशमिक ज्ञानरूप होने. के कारण यद्यपि एक देश व्यक्ति
न
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