श्री प्रवचनसार | Shri Pravachansar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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^ ९५ निनोक्त विधि, श्रंतरग सहज दशके प्रनुरूपं वहिरगययाजातरूपत्व, बटुाईस मूलगुण श्रतरंग-वहिरंग छेद, उपधितिषेघ, उत्सगं मपवाद, युक्ताहार विहार, एकाग्रतारूप मोक्षमार्ग, मुनिका प्रन्य भुनियोके प्रतिका व्यवहार, इत्यादि अनेक विषय इसमे युक्ति सहित समभाये गये हैं। ग्रथकार और टीकाकार आचार्ययुगलने चरणानुयोग जेसे विषयका भी भात्म द्रव्यको मुख्य करके, शुद्धद्रव्यावलम्बी भ्रतरग दशाके साथ उन उन क्रियाश्रोका श्रथवा शुभ मार्वोका सवंघ दिखलाते हुये, निश्चय न्यवहारको सधघिपूर्वक ऐसा चमत्कारपूर्णो वर्णन किया है कि आचरणाप्रज्ञापन जैसे अधिकारमें भी मात्तों कोई दातरस भरता हुआ्ना अध्यात्मगीत गाया जा रहा हो,-ऐसा ही लगता रहता है । भात्मद्रव्यको मुख्य करके ऐसा मधुर, ऐसा सयुक्तिक, ऐसा प्रमाणभृत, साथत घांतरस भरता हुआ चरणानुयोगका प्रतिपादन अन्य किसी शासखत्रमे नही है | हृदयमे भरे हुये भ्रनुभवामृतमें ओतप्रोत होकब निकलती हई दोनो भ्राचार्यो देवोकी वाणीम कोई एेसा चमत्कार है कि वहु जिस जिस विषयको स्प करती है उस उस विषयको परम रसमय, शीतल-शीतल श्रौर सुधास्यंदी वना देती है । इसप्रकार तीन श्रतस्कधोमै चिमाजित यह्‌ परम पविन्न परमागम' सुमुक्षुओकों यथार्थ वस्तुस्वरूपके सममनेमे महानिमित्तदूत है । इस शाक्लमे जिनशासनके मनेक मख्य मख्य सिद्धातोके बीज विद्यमान ই । इस शाखमे प्रत्येक पदाथंकी स्वतत्रताकी घोषणा कौ गई है तथा दिग्यष्वनिके द्वारा विनिर्गेत अनेक प्रयोजनभूत सिद्धातोका दोहन है। परमपूज्य कानजी स्वामी अनेकबार कहते हैं कि---“श्री समयसार, प्रवचतसार, नियमसार आदि छाल्घोकी गाथा गाथामे दिव्यध्वनिका सदेछ्या है ।इत गाथाओंमें इतनी भ्रपार गहराई है कि उसका माप करने्मे श्रपनीदही श्चक्तिका माप होजाता दहै । यह्‌ सागर गभीर क्षाखोक्े रचयिता परमकृपालु धाचा्येदेवका कोई परम मलोकिक सामथ्यं है । परम अदभुत सातिशय अन्तर्वाह्य योगोके विना इन कषास्लोका रचा जाना शक्य नहीं है । इन शास्रोकी वाणी तैरते हुये पुरुषकी वाणी है, यह स्पष्ट प्रतीत होता है। इसकी प्रत्येक गाथा छट -सातवें गुणस्थानमें भूलते हुये महासुनिके प्रात्मा- नुभवसे निकली हुई है। इन शासक कर्ता भगवान कुन्दकुन्दाचायदेव महाविदेह्‌ क्ेधमे सवं वीतराग श्री सीमघर भगवानके समवसरणामें गये थे, ओर वहाँ वे श्राठ दिन रहे थे, यह बात यथातथ्य' है, वक्षरण सत्य है, प्रमाणसिद्ध है। उन परमोपकारी आचार्यदेवके द्वारा रचित समयसार, प्रवचनसार, आदि क्लाक्लोमे तीर्थंकर देवको ऊकारध्वनिर्मेसे ही निकला हुआ उपदेदा है भगवान कुन्दकुन्दाचायेङृत दस शाखकी प्राकृत गाथार्बोकी “तत्वदीपिका” नामक सस्कृत टीका श्री अमृतचन्द्राचायं ( जो कि लगभग विक्रम सवत्‌ को १० व छताब्दोमें होगये हैं ) ने रची है। जैसे इस घास्रके मुलकर्ता अलोकिक पुरुष हैं वँसे ही इसके टीकाकार भी জা পরান ভারা हैं। उन्होंने समयसाय तथा पचास्तिकायकी टीका भी लिखों है भ्रौय तत्वाथेसाय, पुरुषार्थं सदयू पाय जादि स्वतश्र ग्रंथोकी भी रचना की हैं। उन जैसी टीकायें श्वमो तक किसी श्रन्य जैनशाख्रको नही हुई है । उनकी टीकाओ के पाठकको उनको श्रष्यात्मरसिक्रता, श्लात्मानुभव, प्रखर विद्धत्ता,




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