मोक्ष शास्त्र | Moksha shastra

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Moksha shastra  by नेमीचन्द पाटनी - Nemichand Paatni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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{ ] सदभाव एकी सार्थ है आगें पीछे नय होते नहीं । -निजात्माके आश्रयसे. जव भावश्वुतज्ञान प्रगट ह्या ` तवे अपना जायंक्स्वभाव तथा उत्पन्न हुई जो शुद्धदशा उसे आत्माके साथ अभेद मानना वह्‌ निश्चयनयका विषय, सौर जो अपत्ती . पर्यायमे अशुद्धता तथा अल्पता शेष है वह व्यवहारनयका चिपय है । इसप्रकार दोनों. तय एकः ही साथ जीवको होते हैं । इसलिये प्रथम व्यवहारत्य अथवा व्यवहारधर्म और बादमें निश्चयधर्म ऐसा वस्तुस्वरूप नहीं है । १६--प्रश्न+--निश्चयनय और व्यवहारतय समकक्ष हैं ऐसा मानना ठीक है? उत्तर--हीं, दोनों नवकों . समकक्षी माननेवाले एक संप्रदाय#% है वे दोनोंकों सम- कक्षी और दोनोंके शाश्रयसे घ॒र्म होता है ऐसा[ निरूपण करते ह परन्तु. श्री कुन्दकुन्दाचा्यदेवं तो. स्पषटरूपसे कहते हैं कि भूताथेकेः ( निश्चयके ) आश्वयसे दी हमेशा धम होता है, पराश्रयसे ( -व्यवहारसे ) कभी अंदामात्र भी सचा धमे. (-हित). नहीं हौता । हा; दोनों नयोक्छा तथा उनके विषयोका ज्ञान अवद्य करना. चाहिये 1 गणस्थान अनुसार जैसे-जैसे भेद बाते हैं वह जानना प्रयोजनवान- है परन्तु दोनों समान हैं--समकक्ष हैं ऐसा कभी नहीं है रण क्ति दोनों नथोंके विपयमें और- फलमें परस्पर विरोध है इसलिये व्यवहीरनयके आश्रय- कभी भी घमंकी उत्पत्ति, वृद्धं गौर टिकाना होता ही नंहीं ऐसा हढ़ श्रद्धात करना ॐ उस्न सम्प्रदायकी व्यवहारतयके सम्बन्धर्में क्या: श्रद्धा है ? देखो--(१) /श्री. मेघविजयजी गली कृत युक्तिप्रवोध नाटकं (वद्‌ गणीजी कविवर श्री वनारसीदासके समकालीन ये) उनने व्यवहार- नयके नाखम्बन हासि जात्महित होना- बताकर श्री समयमारः नाटक तथा दिगम्बर जनमतके सिद्धान्तोका खण्डन किया ह तया (२) जो प्रायः १६ वीं त्तमं हुये-अब भी उनके सम्प्रदायमें बहुत मान्य हैं उन श्री यशोविजपजी उपाध्यायकृत गुजर साहित्य-संग्रहमें पृष्ठ नँं० २०७, २१९, २२२, ५८४, ८५ में दि० जैनधर्मके विद्येप॑ सिद्धान्तोंका उम्र ( -सख्त ) मापा द्वारा खण्डन किया है, वे वड़े प्रन्यकार थ्े--- विद्वान थे उनमे दिगम्बर जाचार्योका यह्‌ मत बतलाया है कि (१) निमश्नयनय होने पर ही व्यवहारनय हो सकता व्यवहारनय प्रथम नहीं हो सकता । (२) प्रयम व्यवहारतय तथा व्यवहारधर्म भर पीछे निम्नथनय बौर निम्चयधर्म ऐसा नहीं टै 1 (ই) निश्रयनयं ओर व्येवहारनय दोनों समकक्ष नहीं है--परस्पर विरुद्ध हैं उनके विषय और फलमें विपरीतता है \ (४) निमित्तका प्रमाव नहीं पड़ता, ऐसा दिगम्बर জহাবীঁতা मंत्र है । इन मूल बानोंका उस सम्प्रदायने उच्च जोरोस झण्यन किया है--इसलिये जिल्ञानुओसे राना रै निं उन कौन मन सच्ची है পট उसवग निर्णय सच्ची श्वद्धावे! लिये करें--जो बहुत प्रयोजननूत है--जखझूरी दाता है ।




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