अध्यात्म रत्नत्रय | Adhyatma Ratntrya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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समयसार गाथा ३२० ] 1 ७ तथा चोकत॑ सिद्घान्ते - ' निष्क्रिय: शद्धपारिणाभिकः' निष्क्रिय इति को$्थं: ? बस्घकारणभुता या क्रिया रागादिपरिणति: तद्ठूपो न राव ति, सोक्षकारणसता च क्रिया शद्धसावनापरि- णतिस्तद्वूपश्च न शवति । ततो ज्ञायते शद्धपारिणासिकभावों ध्यंयरूपो रावति ध्यावरूपो न रावति । कस्मात ? ध्यानस्य चिनश्वरत्वात्‌ तथा योगीन्द्रदेवेरप्युक्त॑ - णवि उपज्जइ णवि सरइ बंध ण सोक्ख करेइ । जिउ परमत्थे जोइया जिणवर एउ. राणेइ ॥ किच विवक्षितैकदेशशुद्धनयाश्रितेयं भावना सिविकार- स्वसंबेदनलक्षणक्षायोपशमिकज्ञानत्वेन.. यद्यप्येकदेशव्य क्तिरूपा रगवति तथापि ध्यातापुरुष: यदेव सकलनिरावरणमखंडेक- प्रश्न - निष्क्रिय का क्या भ्रथ है ? उसर - रागादिमय परिणतिवाली बन्घ की कारणुशुत क्रिया रूप नही होना तथा मोक्ष की कारणभुत शुद्ध भावनारूप परिणति रूप भी नहीं होना । इससे यह जाना जाता हूँ कि शुद्ध पारियसामिक भाव ध्येयरूप हैं परन्तु ध्यानरूप नहीं है क्योकि ध्यान विनादशील हें । जेंसा कि योगीन्द्रदेव ने भी भ्रपने परमात्मप्रकाश मे लिखा है - हे योगी ! परसार्थ से, जन्मे मरे न जीव । बन्घ-मोक्ष करता नहीं, जिनवर कहें सदीव ॥। अर्थात्‌-हे योगी ! सुन, परमायें दृष्टि से देखने पर यह जीव न तो उपजता हे, न मरता हे, न बन्घ ही करता हे, न मोक्ष ही प्राप्त करता हे - ऐसा श्री जिनेन्द्र भगवान कहते है । ग्रौर विशेष कहते हैं कि विवक्षित एक देश शुद्धनय के भ्राश्रित होने वाली यह भावना निर्विकार स्वसवेदन लक्षण _ क्षायोपशमिक ज्ञानरूप होने. के कारण यद्यपि एक देश व्यक्ति न




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