काम, प्रेम और परिवार | Kam Prem Aur Parivar

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Kam  Prem Aur Parivar by सुशीला अग्रवाल

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इन्द्रिय-भोग, न्रह्मचये और पारिवारिक ता उत्तर--प्रेम क्या कोई श्रमिलाधा-हीन व्यापार है * कया उसमे इच्छा नहीं है ? श्र कौन उस प्रेम को जानता है जो सर्वथा वासना शून्य है * इसलिए मै नही 'चहूँगा कि वासना को प्रेम के एकटम विरोध मे देखो | ऐसे मालूस होने लगेगा कि जिनको हम वासना में पडा मानते हैं वे भी श्रसल से उस विधि वापस जडता की तरफ नहीं, वल्फि प्रेम की श्रोर ही उठने वो छुटपटा रहे हैं । यह वात कोई उनकी हितैषिता के नाते मैं नहीं कद रददा हूँ, बल्कि यथाथें सत्य इसके सिवा दूसरा हो ही नहीं सकता । प्रेम यदि किसी से भोग रूप में है श्रौर योग तक नहीं उठ पा रहा है, तो कौन जानता है कि इसमें निमित्त हम तुम नहीं हैं * श्ररथात्‌ दो सकता है कि श्रपनी सहाबुभूति उसे न दे सकने की झ्रपनी श्रसमथंता का वन्धन हमहीं उस पर डाल रहे हो । वन्धन में घुटकर योग भोग हो जाता है । इस तरह वासना को भी कुचलना नहीं है, उठाना है । नकार-निषेध के कोर से विकार नहीं मिय्ता । विकार के सम्मुख होकर सत्कार सहज ही उसे उठायगा ) श्रागे तिरस्कार, दोष और घृणा को लाकर विकार को श्रौर विकृत ही बनाया जा सकता है । प्रश्न -इसका श्ाशय क्या यह हुआ कि प्रत्येक प्रकार की चासना-दृप्ति न्रह्मचये-साधन के लिए आवश्यक है ? उत्तर--वृत्ति जब तक वहुमुख है, वद्द झ्रतृप्ति हैं। इसी से स्थायी तृप्ति इन्द्रियातीत कहीं जाती है । इसका मतलब यह नहीं कि वह इच्दियों को बीच मे श्रतृप्त छोड़ जाती है, बल्कि यद्दी कि उसे इन्द्रियो में झलग- श्रलग न बॉट सकने के कारण एक साथ झाव्मगत ही कहना होता है । वह तसुक यां विविध इग्द्रियो मे रुद्ध या वद्ध न रहकर हमारी समग्रता को युगपत्‌ प्राप्त होती है | ग्रश्न--हाँ, तो सिकल 'ाईं न वड़ी बात कि इन्द्रियों को विपयों पर सनमानी नहीं छोड़ा जा सकता ? उन्हें आत्म-दृप्ति के लिए श्र




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