कलंक | Kalank
श्रेणी : कहानियाँ / Stories
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
258
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सरल
नहीं हो पाता । तुम्हे देखने की श्राज बडी इच्छा हुई, इसलिए सोचा
गिरिस्ती का भंकट तो सदा लगा दही रहेगा, चलूं महराजिन दीदी से
मिल श्रारऊँ |
दरवाजा बन्द करते हुए सुखराजी ने कहा--बरडा श्रच्छा किया;
चौधराइन ! राज मुझे भी तुम्हारा बड़ा ,ख्याल आ रहा था |
“प्याज तो बडी सफाई है, दीदी ! ऐसा जान पडता है जैसे श्राज ही
दिवाली मना रही हो |”?
“आज का दिन मेरे लिए दिवाली से बढकर है, चौघराइन !”*
“क्यो, कया बात है, दीदी ?””
“प्ाज,..उनकी चिट्ठी श्राई है !””
“किसकी, दीदी !”?
मेरे उनकी 1”?
*पदुबेजी की १? श्र
| पट । 35
“वाह ! तब तो बड़ी ,खुशी की बात है । वाह ! मैं कहती थी कि
दुबे ऐसे-बैंसे श्रादमी नहीं हैं, वह तुम्हारी सुध जरूर लेंगे । मेरी बात
ठीक निकली कि नहीं १ लाश्रो, सिठाई खिलाश्रो, दीदी |”
“खा लेना, चौघराइन |. कान बहुस-सा खाश्रोगी |”?
“ही-दी-ही-दी ! मैं हंसी कर रही हूँ, दीदी |”?
“यह तो मैं भी समक रही हूँ, चौघराइन ।””
वह रात सुखराजी के लिए. दीपावली से कम न थी ।. उसके घर
के तमाम ताकों पर दीपक जल रहे ये । बधाई देने के लिए श्रातुर
शुभचिन्तकों का ताँता बेँधा इुश्रा था। सुखराजी के पाँव ज़मीन पर
न पढ़ते थे | उसके विजयोल्लास की सीमा न थी |
रे
वीस साल पहले की बात है। सुखराजी उस समय युवती थी;
सुन्दरी थी; श्र उसे इसका ज्ञान श्रौर श्रमिमान था । उसका पत्ति
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