भाव संग्रह | bhav Sangrah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( म ) “पे क्तिमात्रप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम” शर्थात श्रावक लोगो ! बीतराग मुनिराजों को केवल आहार देने मात्र के लिए तुम क्‍या परीक्षा करते फिरते हो ? जब कि पंचम काल फे अन्त समय तक साथ गण पाये जांयगे और वे चतुथे कालवत ही अद्रावीस मूल गुणधारी परम पवित्र शुद्धात्मा हांगे ए सा सिद्धान्त चक्कवती भाचाये नेमिचन्द्राचाय त्रिलोकसार में लिखते हैं । तब भाज कज के मुनिराजों पर भाक्ष प करना सिवा अशुभ कमे बन्ध के और कुछ नहीं है. । झ्राचार्य देवसेनजी का स्पष्ट वक्तव्य आजकल के मुनिराजों के विषय में आचार देवसेन जी ने अपने द्वारा रचित इस भाव संग्रह में बहुत ही सुन्दर आगमोक्त सिद्धान्त का स्पष्टीकरण किया है वह इस प्रकार है-- दृषिहो जिणेहि कहिओ जिणकथों तह य धपिर को य । सो जिणकप्यो उत्तो उत्तमसंहणण धारिस्स ॥ ११४ || जत्थण कंटय भरगो पाए णयणम्सि रय पतिट्टस्मि । फेडंति सयं प्रणिणों परावहारे य तुण्हिका ॥ १२० ॥ जल वरिसिणवा याई गमणे भरे य जम्म छम्मासं । अच्छंति णिराहारा काओसर्गेण छम्मासं ॥। श्२१ ॥ पड कर एयारसंग घारी एआइ घ्रम्म सुक्क काणीय । यत्ता सेस कसाया मोगबई कंदरा वासी हर |




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