स्मारिका | Smarika

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Smarika  by देवकुमार जैन - Devkumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पूज्य आचार्य श्री. श्रीलालजी म. : व्यक्तित्व कृतित्व दृष्टे: सदा स्रवतिं यस्य सुधाससुहो, यस्यादशुद्धहदयात्‌ करुणाश्रपुर: । यस्यानने वहति... सोम्यनदीम्रवाह:, श्रीलालजिन्मुनिवरं तमहें . नमामि ॥ उत्कृष्ट चरित्र सम्पन्न महामहिम महात्मा जगत के लिये आशीर्वाद रूप हैं । वे अपने सदेह विद्यमान जीवन से जगत को कर्तव्य का बोध कराते हैं और ऐहिक देहातीत स्थिति में जीवन-कथा द्वारा प्रजा को प्रगति का प्रायेय प्रदान करते हैं । उससे जन साधारण को गुण ग्रहण करने की योग्यता प्राप्त होती है । स्वयं का तुलनात्मक अध्ययन करने की प्रेरणा मिलती है । जैसे भगवान्‌ महावीर का जीवन चरित्र पढ़ने से आत्मा की अनन्त शक्तियों का भान होता है । श्री रामचन्द्रजी का जीवनदृत्त मर्यादा पुरुषोत्तम वनने का पथ प्रदर्शित करता है । भीष्म पित्तामह के वृतान्त से ब्रह्मचयं की. महिमा सम में आती है । महाराणा प्रताप की जीवनी से अटूट घैयें, अदम्य उत्साह, प्रतिज्ञापालन की अपूवें निप्ठा की शिक्षा प्राप्त होती है । ' . -इसीलिये इन पृष्ठों में प्रवल वैराग्य, त्पइचर्या, निस्चल मनोदृत्ति, अनुपम सहनशीलता आदि उत्त- ' सोत्तम सदगुणों से जीवन के परमभादशे को प्राप्त करने के लिये अग्रसर, भव्य जीवों के हृदयों को असाधारण उत्साह से आप्लावित्त करने वाले, जनसामान्य की तरह राजन्यवगे को भी अहिसा धर्म का अनुयायी.बनाने वाले उन पुज्य श्री 1008 श्री श्रीलालजी महाराज की जीवनगाथा उपस्थित करते हैं, जिन्होंने श्रमण भगवान्‌ महावीर की भाज्ञा रूपी ध्रवत्तारे का अवलम्वन लेकर निःश्रेयस्‌ की संसिद्धि के लिये प्रस्थान किया था | जस्म एवं बाल्यावस्था ड पुज्य श्रवर श्रीलालेजी म. के व्यवित्तत्व छृतित्व का आलेखन वर्तमान के घरातल पर करेंगे । क्योंकि अतीत सामान्य बुद्धि के लिये नगम्य है, तो अनागत अच्दय । वर्तमान ज्ञात है, उसकी प्रत्येक ब्रत्ति, प्रदत्ति सदियों तक प्रभावित करती है । कर वर्तमान की आाद्य इकाई जन्म है और जन्म का अरे 'पुनरपि जननं पुनरपि सरणं पुनरपि जननी जद शयन' नहीं, किन्तु 'असतो मा सद्गमय, सृत्योर्मा अमृत्तंग मय, तमसो मा ज्योंतिगंमय' का सुत्र है पुज्य श्री जी का जन्म इसी सूत्र की व्याख्या है । यद्यपि जन्म लेने पर उनके साथ माता, पित्ता, काका, वावा, सामा, मामी, भाई, बहिन आदि-आदि के रूप में लौकिक नाते-रियते जुट गये थे । उनये साइ-प्यार-दलार वीच अपने ऐहिक जीवन का श्रीमणेश किया । लेकिन इतनों तक ही स्वयं को सीमित नहीं दिया, 'बसः कुटुम्वक्मू' को साकार कर दिया । .. प्रत्येक व्यवित के विकास में जन्म के साथ भौगोलिक स्थिति, साता-पिता के. लाचार-विनासों था भी सम्बन्ध है । बचत आसंगिक होने में सर्वप्रथम संक्षेप में इनका उस्पेख मारते हैं। व




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