कन्यापक्ष | Kanyapaksh

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Kanyapaksh by विमल मित्र - Vimal Mitra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कर्यापक्ष श्‌9 'छोटे भैया मेस छोड़कर स्यालदा के किसी बड़े होटल में चले गये हैं। इसलिए कह रही हूँ, पहले स्यालदा जाकर छोटे मैया का पता लगाऊँ ।' प्राखिर स्यालदा के मोड़ पर ट्राम से उत्तरा । सुधा सेन को साथ लिये उस होटल में प्रवेश करते समय मुभे लज्जा श्रौर संकोच का श्रनुभव हु्रा । मैनेजर सुधा सेन के छोटे भैया को पहचान नहीं पाया । बोला, 'प्रमलेन्दु सेन ? नहीं जनाब, इस नाम का यहाँ कोई नहीं रहता ।' सुधा सेन मानो मायूस हो गयी । छोटे भैया के मेस में जाकर उसने सुना था कि वह यहीं ठहरा है । ं मैंने कहा, क्या यहाँ कोई कमरा मिलेगा ? याने एक अलग कमरा, ये रहेंगी ।' मेनेजर ने सुधा सेन की तरफ देखा । न जाने कैसी तिरछी नजर । कम से कम सुधा सेन को कोई तिरछी नजर से देख सकता है, यह अनुभव मेरे लिए नया था । इस बीच एक-दो वेटर, चपरासी, कैशियर वर्गेरह भी प्राकर झ्रासपास खड़े हो गये थे । सुधा सेन श्रौर मेरे बीच उन सबने मानों एक सम्पकं को कल्पना कर ली हो । यह एहसास मुभ्े अच्छा नहीं लगा । कैशियर बोला, “क्या कहा सर, श्रमलेन्दु सेन ? हाँ, हाँ, वे यहाँ थे, लेकिन अरब तो वे....श्रच्छा, एक बार वहाँ देखिए न, बगल से जो गली गयी है उससे चले जाइए, श्राखिर में लाल रंग का जो दुमंजिला मकान है, शायद उसी में ने रहते हैं। एक बार उस होटल में भी कोशिश करके देखिए--' सबको सवालिया नजर से बचकर मैं सुधा सेन को साथ लिये बाहर निकल श्राया । बाहर आकर मुभ्े श्राराम मिला । मेरे बारे में उन लोगों ने क्या सोचा, क्या पत्ता ? क्या सुधा सेन भी उन सब का मतलब समभ गयी थी ? लेकिन उसका चेहरा देखकर कुछ समभकने का उपाय नहीं था । उसका चेहरा पहले जैसा ही भाषाहीन श्र वराँहीन था । वैनिटी बैग हाथ में लिये वह जल्दी-जल्दी मेरी बगल में होकर चलने लगी थी । उसके बाद लाल रंग के दुमंजिले मकान में हमने प्रवेश किया । मकान कुछ सुनसान लगा । कमरों के झ्रागे ताले लटक रहे थे । छुट्टी का दिन था । शायद सब शझ्पने-्रपने घर चले गये थे । रसोईघर के कोने में रसोइया थालो में भात निकाल कर खाने का जुगाड़ कर रहा था । उसी ने कहा, “भ्रमलेन्दु॒ बाबू ? उधर सात नम्बर वाले कमरे में




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