सूर - सौरभ | Soor Sorabh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हू. सुख पय 'क श्रंक घ्र.व देखि यत छुखुम कन्द बरस छाथे । मधुर मह्लिका कुसुसित कुन्जन दुम्पत्ति लगत सहाये ॥॥१००३॥। गोबधन गिरिरत्न सिंहासन दम्पति रस सख खान । चिविढ़ कुन ज हूँ कोउ न श्रावत रस विलसत सुख सान१००४॥। निशा शोर कहूँ नहि जानत प्रेम सत्त नराग । ललिंतादिक सींचत सुख नेनन जर सहचरि वढ़ भाग 11१००४॥। यह निकुल्ज कौ वणन करि-करिं रहे वेद पचिहार । नेति-नेति कर कह्देठ सहस बिधि तऊ न पायों पार 11१००६॥। युगल मूर्ति को रासलीला का यह दर्शन सर को गुरुवर श्री चल्लमाचायें के प्रसाद से प्राप्त हुआ था । इसके पश्चात्‌ छन्द संख्या १००७ में सर ने भगवान द्वारा दिये गये वरदान का उल्लेख किया हैं जो इस श्रन्थ में उद्घत साहित्य- लहरी के सूर-वंश-परिचायक पद सें चर्णित कूप-पतन श्रौर वरदान वाली घटना का समथन करता हैं । भगवदू-लीला के इस दर्शनरूप सिद्धि-प्राप्ति का वणन चौरासी वैष्णुवों की वार्ता के अनुसार इस प्रकार दै-सूरदास स्नान करके महाप्रमु के पास पहुँचे । महाप्रभु ने उन्हें नाम छुनाया, समपेण करवाया श्र फिर दशमस्कन्थ की निजकुत छानुकमशिका कही । इसके उपरान्त श्राचाय जी ने सूरदास को पुरुपोत्तम सहखनाम भी सुनाया+ इससे सूर के सब दोष दूर हो गये और उन्हें नवधाभक्ति सिद्ध हुई । तब सूर ने भगवान की लीला का चणन किया । झ्रनुक्रमणिका और पुरुपीत्तम सदद्ननाम से भगवान की सम्पूणां लीला रुफुरित हुई । भागवत के दशमस्क्न्ध की सुबोधिनी के मन्ञलाचरण के आधार पर सूर ने “चकई री चलि चरण सरोवर जहाँ न प्रेम वियोग-** इस टेक से प्रारम्भ होने वाला सरस रहस्यात्मक पद गाया; जो वास्तव में सूर को प्राप्त हुई सिद्धि की उच्च भूमिका को सचित करता है । ६७ चषे की आय सें भगवान की लीला के दशंन करना सन्तों के लिये विस्मयावद नहीं दे । सर का संयत हृदय और मन, वद्धि एवं आत्मा पहले से ही किसी वस्तु के ग्रहण की पूरी तेयारी किये वेठे थे--भूमिं तैयार थी, केवल बीज पढ़ने की देर थी । यद्द बीज सर को बल्लम के झध्यात्मशक्ति-गर्भित उपदेशों में सुलभ हो गया। यूरसागर की औढ़ रन्वला भी उसके थौढ़ आय में लिखे जाने का समथन करती - अककतन स्तन बफत को सार जल का जाता है । इसकी रतना साम्प्रदायिक विद्वानों के मतानसार सं० १५८० के लगभग हुई । इस झ्ाधार पर सर की हरिलीला द्शनरूपी सिद्धि इस संवत्‌ के पश्चात्‌ ही मानी जायगी 1 )




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