आदिपुराण भाग - 2 | Adipuran Bhag - 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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«4 2 पड्चिंदातितमं पव चेतांसि तरणाज्लोपजीचिनामुद्तात्मनाम्‌ । पुंसां च्युताधिकाराणामिव देन्यसुपागमन्‌ ॥५७॥ प्रतापी झुवनस्पेकें चश्ुर्नित्यमहोदयः । भास्वानाक्रान्ततेजस्वी चमासे मरतेगवत्‌ ॥'“८॥ इति प्रस्प्चन्दांडुप्रहासे गरदागमि । चक्रे दिस्विजयोद्योगं चक्री चक्रपुरस्सरसू ॥'*९॥ प्रस्थानसेर्यों गम्मीरप्रध्वानाः प्रहतास्तदा । श्रुता वर्दिमिरुद्यीवेवना डस्वरराड्लिसि ॥ 5०॥ कृतमज्लठनेपथ्यों बसारोरस्थलं प्रसुः । गारलइम्येव संमक्त ' सहारहरिचन्दनसू ॥ ६१॥ ज्योत्सनामये डुकूले च झुकठे परिदृघो चूपः । ठारच्छियोपनीते वा खदुनी टिव्यवाससी ॥ द२॥ आजानुलस्तिना ्ह्मसूचेंण बिच मो विभुः । हिमादिरिव रज़ास्वुप्रचाहेण तटर्पणा ॥६३॥ नरीटोटमर्धासी कर्णास्यां कुण्डले दूवी । चन्टाकंमण्डले चक्‍्तुमिवायाते जयोत्सवसू ॥ द४॥ चक्ष:स्धलेघस्य रुरुचे रुचिरिः कौस्तुमो मणि: । जयलक्ष्मीसमुद्राहमड्गलागसिंदीपचत ॥ ६५॥ जन नलनय सज्जन पी साय उथ सका पल पल जप रलपपी पनय पा पमायाजयनाननपरवपटजपनिजानायानारार सजा सजा सर एव पद कप गया उदय बाप सजा अन पर्वित आकाणमें ऐसी शोभा वढा रही थी मानो पद्मराग मणियोकी कान्तिसहित हरित मणियों- की बनी हुई वन्दनमाला ही हो ॥॥५६॥ जिस प्रकार अधिकारसे आर्ट हुए मनुष्योके चित्त दीनताको प्राप्त होते है उसी प्रकार नावोके द्वारा आजीविका करनेवाले उद्धत मल्लाहोके चित्त दीनताको प्राप्त हो रहे थे । भावाथे - गरदऋतुमें न्दियोंका पानी कम हो जानेसे नाव चलानेवाले छोगोंका व्यापार बन्द हो गया था इसलिए उनके चित्त दुखी हो रहे थे ॥॥५७।। उस समय सूय॑ भी ठीक महाराज भरतके समान देदीप्यमान हो रहा था, क्योंकि जिस प्रकार भरत प्रतापी थे उसी प्रकार सूयें भी प्रतापी था, जिस प्रकार भरत लोकके एकमात्र नेत्र थे अर्थात्‌ सबको हिताहितका मार्ग दिखानेवाले थे उसी प्रकार सूंय॑ भी लोकका एकमात्र नेत्र था, जिस प्रकार भरतका तेज प्रतिदिन वढता जाता था उसी प्रकार सूयंका भी तेज प्रतिदिन वढ़ता जाता था, और जिस प्रकार भरतने अन्य तेनस्वी राजाओको दवा दिया था उसी प्रकार सुने भी अन्य चन्द्रमा तारा आदि तेजस्वी पदार्थोकों दवा दिया था - अपने तेजसे उनका तेज नष्ट कर दिया था ॥॥५८॥ इस प्रकार अत्यन्त निर्मल चन्द्रमाकी किरणे ही जिसका हास्य है ऐसी दारदऋतुके आनेपर चक्रवर्ती भरतने चक्ररत्त आगे कर दिग्विजय करनेके लिए उद्योग किया ॥1५९॥। उस समय गम्भीर शब्द करते हुए प्रस्थान कालके नगाड़े वज रहे थे, जिन्हें मेघके आडम्वरकी णंका करनेवाले मयूर अपनी ग्रीवा ऊँची उठाकर सुन रहे थे ॥६०॥ उस समय जिन्होंने मंगलमय वस्वराशूपण धारण किये हैं ऐसे महाराज भरत हार तथा सफेद चन्दन- से सुगोभित जिस वक्ष स्थलको धारण किये हुए थे वह ऐसा जान पड़ता था मानो गरदुऋतु- रूपी लक्ष्मी ही उसकी सेवा कर रही हो ॥६१॥ महाराज भरतने चाँदनीसे बने हुएके समान सफेद, बारीक और कोमल जिन दो दिव्य वस्त्रोंको धारण किया था वे ऐसे जान पड़ते थे मानो शरदऋतुरूपी लक्ष्मीके द्वारा ही उपहारमें लाये गये हो ॥ ६२ ॥ घुटनों तक लटकते हुए ब्रह्मसूचसे महाराज भरत ऐसे सुनोभित हो रहे थे, जेसा कि तटको स्पर्ण करनेवाले गगा जलके प्रवाहस हिमवान्‌ पंत सुनोभित होता है ॥ ६३ ॥ मुकुट लगानेसे जिनका मस्तक बहुत ऊँचा हो रहा है ऐसे भरत महाराजने अपने दोनो कानोमें जो कुण्डल धारण किये थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो जयोत्सवकी वधाई देनेके लिए सुर्यंमण्डल और चन्द्रमण्डल ही आये हो ॥ ६४ ॥ भरतेग्वरके वक्ष:स्थलपर देदीप्यमान कौस्तुभ मणि ऐसा सुनोभित होता था, १ द्रोण्युड्पाद्युपजी विनामू । नदीतारकाणामित्यर्थ । २ मज्भलालंकार- । 5 सेवितम्‌ । ४ किरीटोदय - ल०, द०, अ०, स०् ।




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