कूली | Kooli
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
33 MB
कुल पष्ठ :
510
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कली ट
किन्तु 'वहूः अर्पने 'भतीजें और देहाती राहगीरों पर यह जता कर रोब
जमाना चाहता था कि वह “अँगरेजी सरकार के एकमहत्त्वपूर्ण पद '
पर आसीन है 1
मुन्नू ने अपने छाछे पड़े हुए पैरों की ओर देखा और उसकी आँखें
डबडबा आई । उसे अपने आप पर तरस आने ठगा।
चाचा की डाँट के जवाब में उसने सिसकी भर कर कहा-“मेरे
पाँव बहुत दुख रहे हूं ।
चल, चल ।” दयाराम चिड़चिड़ा कर बोला |
उसका हुद्य तो चाहता था कि जरा नरमी और प्यार से बोले,किन्तु
वह अपने लम्बे और पतले शरीर को तान कर बोला--“चल,. चल ।
अगले महीने तुझे तनख्वाह मिलेगी तो जूते ले दूंगा ।''
मुन्नू ने कहा--“मुझसे नहीं चछा जाता।” उसने एक गाड़ी के 'ब्रेक
लगने की चर चँ सन छी थी । गाड़ी उनसे जरा आगे जाकर मोड़ पर
गई थी । यहाँ सड़क एकदम मड़ गई थी. और सात सौ फूट नीचे
व्यास नदी लहरें मार रही थी ।
“इस गाडीवान से कहो न कि मुझे बंठा छे।”'
“नहीं, नहीं, तुझे क्या वह मुफ्त बैठा लेगा ? पैसे माँगंगा, पसें ।
दयाराम ने.इतने जोर से कहा कि गाड़ीवान सुन ले और फिर उन्हें अपन
आप मुफ्त बैठा ले । क्योंकि यह शानदार वर्दी पहननें के बाद एक गाड़ी-
वान से कोई अनरोध या प्राथ॑ना करने में उसकी शान में बट्ठा लगता था ।
गाड़ीवान दयाराम का बरताव देखकर स्वयं ही मुँहफट तरीके से
बोला-- बस, बस, अपनी चपरासियत की शान रहने दो । बच्चें को, यहाँ
पीछे बैठा दो और आओ तुम भी बैठ जाओ । इस मोटे लाल जनी कोट:
में गरमी. के मारे तुम्हारा बुरा हाल हो रहा होगा। .. ।
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