कूली | Kooli

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Kooli  by मुल्कराज आनन्द - Mulkraj Anand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कली ट किन्तु 'वहूः अर्पने 'भतीजें और देहाती राहगीरों पर यह जता कर रोब जमाना चाहता था कि वह “अँगरेजी सरकार के एकमहत्त्वपूर्ण पद ' पर आसीन है 1 मुन्नू ने अपने छाछे पड़े हुए पैरों की ओर देखा और उसकी आँखें डबडबा आई । उसे अपने आप पर तरस आने ठगा। चाचा की डाँट के जवाब में उसने सिसकी भर कर कहा-“मेरे पाँव बहुत दुख रहे हूं । चल, चल ।” दयाराम चिड़चिड़ा कर बोला | उसका हुद्य तो चाहता था कि जरा नरमी और प्यार से बोले,किन्तु वह अपने लम्बे और पतले शरीर को तान कर बोला--“चल,. चल । अगले महीने तुझे तनख्वाह मिलेगी तो जूते ले दूंगा ।'' मुन्नू ने कहा--“मुझसे नहीं चछा जाता।” उसने एक गाड़ी के 'ब्रेक लगने की चर चँ सन छी थी । गाड़ी उनसे जरा आगे जाकर मोड़ पर गई थी । यहाँ सड़क एकदम मड़ गई थी. और सात सौ फूट नीचे व्यास नदी लहरें मार रही थी । “इस गाडीवान से कहो न कि मुझे बंठा छे।”' “नहीं, नहीं, तुझे क्या वह मुफ्त बैठा लेगा ? पैसे माँगंगा, पसें । दयाराम ने.इतने जोर से कहा कि गाड़ीवान सुन ले और फिर उन्हें अपन आप मुफ्त बैठा ले । क्योंकि यह शानदार वर्दी पहननें के बाद एक गाड़ी- वान से कोई अनरोध या प्राथ॑ना करने में उसकी शान में बट्ठा लगता था । गाड़ीवान दयाराम का बरताव देखकर स्वयं ही मुँहफट तरीके से बोला-- बस, बस, अपनी चपरासियत की शान रहने दो । बच्चें को, यहाँ पीछे बैठा दो और आओ तुम भी बैठ जाओ । इस मोटे लाल जनी कोट: में गरमी. के मारे तुम्हारा बुरा हाल हो रहा होगा। .. ।




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