युगवीर - निबन्धावली भाग - 2 | Yugavir Nibandhavali Bhag - 2

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Yugavir Nibandhavali Bhag - 2  by जुगलकिशोर मुख़्तार - Jugalkishaor Mukhtar

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

Author Image Avatar

जैनोलॉजी में शोध करने के लिए आदर्श रूप से समर्पित एक महान व्यक्ति पं. जुगलकिशोर जैन मुख्तार “युगवीर” का जन्म सरसावा, जिला सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। पंडित जुगल किशोर जैन मुख्तार जी के पिता का नाम श्री नाथूमल जैन “चौधरी” और माता का नाम श्रीमती भुई देवी जैन था। पं जुगल किशोर जैन मुख्तार जी की दादी का नाम रामीबाई जी जैन व दादा का नाम सुंदरलाल जी जैन था ।
इनकी दो पुत्रिया थी । जिनका नाम सन्मति जैन और विद्यावती जैन था।

पंडित जुगलकिशोर जैन “मुख्तार” जी जैन(अग्रवाल) परिवार में पैदा हुए थे। इनका जन्म मंगसीर शुक्ला 11, संवत 1934 (16 दिसम्बर 1877) में हुआ था।
इनको प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और फारस

Read More About Acharya Jugal Kishor JainMukhtar'

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
श्० युगवीर-निवम्धावली बिवाहसम्बन्धी कुरीतियों, सकीणंताओं आदिपर खुला प्रहार किया गया है और “रूढ़िके दासों' तथा “रस्मरिवाजोंके युलामों'को खरी खरी सुनाई गई है। विवाहू-विषयक सामाजिक कुप्रथाएँ उस युगमें सुघारकोंके आन्दोलनका लक्ष्य बन रही थी और मुख्तार साहबने सबल युक्तियों एवं शास्त्रीय प्रमाणो-द्वारा समाजकी आँखे खोलनेका स्तुत्य प्रयत्न किया है । उनका “'विवाह-क्षेत्र-प्रकाश' शीर्षक निबन्ध, जो १४६ पृष्ठोंपर है, इस विषयका स्पृतिशास्त्र माना जा सकता है । ४ वें निबन्धमे जातीय पंचायतोके अन्यायपुर्ण दण्डविधानपर तीखे प्रहार किये गये हैं और उनका अनौचित्य प्रदर्शित किया गया है । परस्पर अभिवादनमें 'जयजिनेन्द्र' पद के, विशेषकर अम्रेजी पढ़े-लिखे लोगों द्वारा, बढ़ते हुए प्रयोगके विरुद्ध भी स्थितिपालकोने आन्दोलन छेड़ा और उसके स्थानमें “जुहारु' का समर्थन किया, अतएव मुख्तार सा० का ६ ठा लेख इस प्रतिक्रियाके उत्तरमें लिखा गया । मुख्तार सा०का एक तिबन्ध “'उपासनाका ढंग” शीर्पक्से पत्रा में प्रकाशित हुआ था । स्थितिपालकोकी ओरसे उसकी भी प्रतिकिया हुई-- वे लोग तो उससमय तक शास्त्रोंके छपानेका विरोध भी जोर-शोरसे कर रहे थे । अस्तु, इस सग्रहका ७वाँ लेख उनके उत्तरमें “'उपासना-वथयक समाधान'के रूपमें लिखा गया था । अपने मूललेखके--जो 'उपासनाका ढग' शीर्षक अलगसे भी प्रकाशित हुआ था--लिखनेमें अपना हेतु मुख्तार सा ० ने स्वय स्पष्ट कर दिया था, यथा--' “आजकल हमारी उपासना बहुत कुछ विकृत तथा सदोष होरही है और इसलिये समाजमे उपासनाके जितने अग और ढंग प्रचलित हैं उन सबके गुण-दोषों पर विचार करनेकी बड़ी जरूरत है '** उपासनाका वहीं ढंग उपादेय है जिससे उपासनाके सिद्धान्तमें--उसके मूल उद्देश्योमें--कुछ भी बाधा न आती हो । उसका कोई एक निर्दिष्ट रूप नहीं हो सकता” * *” उपासनाके जो विधि-विधान भाज प्रचलित हैं वे बहुत पहले प्राचीन समयमें भी प्रचलित थे, ऐसा नहीं कहां जा सकता ।'' अपने तदट्रिषयक लेखोंमें इन्हीं प्रतिपत्तियोकों उन्होंने सप्रमाण एवं सयुक्ति-सिद्ध किया हैं।. कपमंडूक-जैनसमाजकों गाधुनिककताके स्तरपर खीच लानेके एक सुन्दर प्रयत्नकी झाँकी इन निबन्धोमैं मिलती है । ८्वाँ और ९वाँ लेख सम्पादककी हैसियतसे अपने.




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now