अनेकान्त | Anekant
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
26 MB
कुल पष्ठ :
460
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
जैनोलॉजी में शोध करने के लिए आदर्श रूप से समर्पित एक महान व्यक्ति पं. जुगलकिशोर जैन मुख्तार “युगवीर” का जन्म सरसावा, जिला सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। पंडित जुगल किशोर जैन मुख्तार जी के पिता का नाम श्री नाथूमल जैन “चौधरी” और माता का नाम श्रीमती भुई देवी जैन था। पं जुगल किशोर जैन मुख्तार जी की दादी का नाम रामीबाई जी जैन व दादा का नाम सुंदरलाल जी जैन था ।
इनकी दो पुत्रिया थी । जिनका नाम सन्मति जैन और विद्यावती जैन था।
पंडित जुगलकिशोर जैन “मुख्तार” जी जैन(अग्रवाल) परिवार में पैदा हुए थे। इनका जन्म मंगसीर शुक्ला 11, संवत 1934 (16 दिसम्बर 1877) में हुआ था।
इनको प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और फारस
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)किरण १-२ [||
जंनकला घोर उसका महत्व धर
१५- दधघिपणं, ५६- नन्दीदुक्ष, १०४- तिलक, १८- आम,
१६० शोक, २०० 'चम्पा, २१० वकुल (मौलसिरि),
२२- बेतसू (बांस), २३- घवा, २४- शालि ।
जैन अनुश्र ति-अनुसार ये वे दृच हैं, जिनके नीचे ध्यान
लगाते हुये दूषभ श्रादि तीथंकरोंने केवलजान उपजाया
था । मालूम होता है कि ज्यों ज्यों समय बीता, ये कबूस्
योगी महात्मा्धेकि ज्ञान 'धधवा बोधिके स्मारक होनेके
कारया भारतीय लोगोमिं एफ आदरवकी वस्तु बन गये धौर
महात्माथोकी मृर्तियें अथवा उनके प्रसीकोके समान ही
पूजनीय होगये ।
इसीलिये. जैनसाहित्यमें इनका उल्लेख करते हुए
लिखा है, कि ये वृक्ष वेदिका-तोरणसे युक्त स्तूपोंके पास
उगे रहते हैं, श्रीर इनके नीचे छत्र, चमर, ध्वजा, श्रासन
श्रादि भ्रष्ट प्रातिहायोसे युक्त श्हन्तोंकी मुतियां स्थापित
झपनी इन्दाणी-सहित पंचकल्याणक-उत्सवोंमे तीर्थंकर कि
अभिषेक करने, उनके समवसरण बनाने, श्रादिके रूपमें
झनेक सेवाएँ करते इुये प्रकट किया गया है, जसके स्वगं-
भवन देवगण, ऐरावत हाथी और बद्ध-झायुघका भी काफी
उल्लेख क्या गया है, जैनकलामे उसकी मूर्तियों और
चिन्रॉको भी मन्दिरद्वारों घोर वेदियोंके ास-पास स्थान
दिया गया है”, परन्तु जैनसाहित्य और संस्क्तिमे जेन-
कला श्ौर श्रास्यानोमें जो महत्त्वका स्थान नाग, सुपसां,
किश्नर ्रौर यक्ष देवताधको दिया गया है वह इन्दफो
प्राप्त नहीं हुआ ।
नाग-नागनियों श्रौर उनके अधिपति घरणन्त झथवा
फणीन्दरको सदा श्वरहन्तोंका परम उपासक माना गया है” ।
जब कभी 'श्रहन्तॉपर कोई उपसर्ग हुआ है, या जब उन्हें
कोई भीद पद्ी है तो घरणेन्द भ्रपनी पूरी शक्तिसे उनका
करके खुर-श्ररुर लोग उनकी पूजा करते है । पुरानी. और सहायक हुआ है । सातवें तीर्थकर सुपाश्वनाथ और २६वें
मध्यकालीनकी जैनकलामे भी इन वृचको अर्हन्ताती मृर्तियों
श्रौर उनके स्तूपोके दोनों श्रोर खड़ा हुश्रा दिखलाया गया है। *
नाग शोर यक्त :--
हुनके श्रलावा जैनकलाके नाग श्रौर यक्ष भी भारतकी
प्राचीन संस्कृति जाननेके लिये बड़े मदस्वकी चीज़ें हैं ।
यद्यपि जैन साहित्यमें वेदोंके प्रमुख देवता इन्द्रको
व्पहंन्तोका एक परमश्रद्धालु सेवक बतलाया गया है--उसे
३ (3) सच्छता सपडाका सवेदया तोरगदि उचवेया ।
सुर-द्सुर-गसन-महिया चेइयरुक्वा जिसुवराणं । ६-१८
(समवायाज़ सुच प्र० ३१४ श्रमोनकक्षि श्रनुवाद )
रा) सालत्तय पीदत्तय जु्ता मशिसाइपत्तपृ्फफला |
तच्चउवसमज्नगया चेदिगरुक्सवा सुसोइंति ॥|
-ब्रिलोकसार गाथा १०१३
र हि) प्रा 8 एल दा 0-भत। हे,
रिक्ा।ा, 2] ४, 1594, प्र० ३११, फलक-१, फलक-र
(श्र) १३ वी शताब्दीके दस्तालिखित कल्पसत्रके
ताड़पत्नीपर केवलशानी भगवान मदावरका एक चित्र श्रंकत
है जिसके दोनों श्रोर शाल वृत्तके चित्र बने हुए हैं । यह
शाल वृक्ष महावीरका चेत्यदृक्ष था, इस चित्रके लिये
देखो “उत्तर दिन्दुस्तानमें जैनघ्म--+चीमनलाल एम ० ए०
कृत, प्र० २४
तीर्थंकर पार्वनाथकी मूतियक्ि शिरॉपर बहुघा जो सपंफण
बने हुए मिलते हैं वे इसी थातके सूचक हैं । हसके
अलावा जैनमृर्तियोंके दायें बाय सपंफणधारी नाग लोग भी
स्वद़े हुए मिलते हैं । यक्त श्रीर यक्तिखियों शरीर उनके
अधिपति वरूण कुबेर श्रथवा वैश्रवणकों झट्दन्त-शासनका
मुख्य संरक्षक समसका गया है । कुबेर तीर्थकरकि गभ,वतार
से ६ मास पूर्व ही उनके भावी साता-पिताके भवनोपर
रत्नवूष्टि करता हुआ बतलाया गया है” । श्र हिमाचल
झादि पव॑त्तोके ऊपर सरोवरके कमलॉमिं रहने वाली श्री,
दी, घृति, बुद्धि, कौति, लचमी नाम वाली देवियोंको गर्भसमय
तीथंकरोंकी माताशध्योकी सेविका कहा गया है ।* इनके
३. उत्तराध्ययन ११-२२: कल्पसूत्र ब्याग्व्या १, द्वाद शानुप्रेच्षा;
स्त्यंभूम्तोत्र,
४ सूत्रकृताज्सत्र १-६-२०,. पद्टपराण 5, ३०६-३३६,
श्रादिपुराण १८६२-४८ दरिवश पुगण २२,५१-८२,
पाश्वस्युदय इ,६४
७ पद्मपुराण हे, १५५ , श्रादिपुराणा १ रे, ८४-००: इरिंश-
पुराण ३७, १-३
६ “'तन्निवासिन्य देव्य: भी ही घृतिकीर्ति बुद्धिलचमय:
तत्त्वार्थसूत्र ३-१६,
७ श्याशाघर--प्रतिक्नसारोद्धार है, २३१-९३६..
हू
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