खंजन नयन | Khanzan Nayan

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Khanzan Nayan by अमृतलाल नागर - Amritlal Nagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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“चिता ना करी पंडरजी साराज । (बन के पास झाकर) नाव वी कोठरी में चंदनमल संघी बडे सान हैगो । दिनारे पौंचने ही पाव घड़ी ते बस ससी में वोठरी साली है जायगी 1 श्राप पस्ली पार बस्ती में जानी ही सती 1 अस्त “घौताएं हाथरस चल ही दीजों ।” सघन्प हो बालूराम, दस बलीवास में धूद जातियों में जितनी साववुद्धि है उत्तनी उच्च वर्षों में नहीं रही । करुथानिधान स्व तुम्हारे ऊपर इपालु रहें बेस या दोनों घुटने उठाएं अपने में समाया, नाव के सहारे बैठा हुप्रा, दुबला-पतता ग्ंधा सूरज एकाएव सीधे बेठकर वोजा ८: “गुर जी, हम दोनों श्राज यहीं रह जाएं तो भ्रच्छा रटेगा 1” *प्रयर, बेटा सो भर संपेरों का गांव ।”--- *मला होगा गुरू जी, मान जादए, कल चलेंगे ।” नाव को किनारे से पानी मे ढबेंला जा रहा था । नाव को ढकेलने से धवरा स्याकर पंडित सीताराम के सन में फैली गणित गडवड़ा गई 1 मुरज ने उनकी बार्ट बाद पर दोनों हाय रखते हुए बच्चे की तरह गिड- गिडावर कुछ कहना चाहा, विनतु उसमें पहले ही पडित जी हस्वी शिडक भरे स्वर में दोते : “बच्चे न दनों पुत्र । सयोगवदा पिछते सोलह-सबह दिवस साथ 'रदने का प्रौमर मिल गया । यहीं बहुत है । हां, तुम्हारे संवेत पर जव मैंने ग॑ मीरता में विचार वरना थ्ारंम विया तो लेगा कि मेरा पंत घ्ाज निशिचित ही है जल, नहीं तो श्रग्नी, नहीं तो असि, एक नहीं तीन-तीन दाघाए पार वरूं तो 'परमों घर-वार के साय अ्रपना वावनवां जस्म-दिवस सनाऊं 1 यह संभव सही । जीवन भीर मुस्यु निश्चित सत्य हैं। मैं श्रपने घेप क्षण शरद श्रीराम नारायण 'मगवान के नाम-स्मरण में बिताना चाहता हू ।” सूरज बुछ बहना चाहता है पर कह सही पाता । नाव बहू चली है । पंडित सीतारामडी की बातों से सूरज का मन करण श्ौर भारी हो रहा है। भ्रघे सूरज वी यादों में सोलह-मब्रह दिन पहले की दह सामझः उजागर हो बाई जब '** पीपल के पेड के तने से टिका बैठा था । चिडियां ऊपर श्रपनी-प्रपनी जगहों के लिए झापस से लटकर भयंकर दोर कर रही थी । भ्रघे सुरज के मतोलोक में भी उजाले वा भ्धिवार पाने के लिए मयंकर सटनामय हो रहा था । क्रोय रंजिस करणा के स्वर मुखर हो उठे थे : “किन तेरो नाम भोविन्द घर्‌यो ।” गुद्द सादीपनि का पुप्र-दोक-ताप हरने के लिए तुमने झमंसय को संभव दर दिखसाया, पमलोफ से उनके प्राण छुड़ा लाए ! मित्र सुदामा का दुख दारिदय छुड़ाया, द्रौपदी थी साज बचाई । प्रौर मैंने तुम पर इतना-इदना मरोसा किया, इतनी-दतनी स्तुति चिरौरिया की, किस्तु “सूर की बिरिया निदुर है वेट्यो 'जनमत भ्रघ कर्‌यो 1” एक हाथ ने उसयी उंगलियों को पोल से छूकर फिर हथेली दवाई, एक स्वर ने पूछा : “कहां के निवासी हो बेटा ? संजन नयन / 13




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