अतीत के चित्र | Atit Ke Chitra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आदमी है । ऐसी बातों पर विश्वास कर लेता है । इस संसार में केवसे मं ही विकालदर्शी हू-हू कंसे सर्म्त बन सकता है । बोल, उत्तर देन?” हाथ जोड़कर भिक्षु दोला--“शास्ता ठीक ही कह रहे हैं 1” आस-पास बैठे हुए भिक्षु चकित होकर यह वार्ता सुनते रहे 1 दल- पति ने फिर गरज कर कहा--“मैंने हिमालय में तपस्या की है । अणि- मादिक सिद्धियाँ मेरी दासी हैं--रमैं चाहूँ तो पूरे बौद-संघ के साथ युद्ध को समुद्र के उस पार भेज दे सकता हूं । यक्षो का राजा कुवेर मेरा सेवक है । मागराज कौष्डिन्य मेरा मित्र है। मैं देव परिपद में जाकर दाक्र से भी अपने चरण धुलवा चुका हूँ । संसार मी मैं हो ज्पेष्ठ हूँ, बुढे तो मुख से भी तीन साल छोटा है--कल का छोकरा है । उस प्रवचन का चारों भोर से समर्थन हुआ । यह दलनायक था देवदत्त, जो वुद्धदेव का अस्तित्व समाप्त करते के लिए प्रारापात परिश्रम कर रहा था । जब मन में किसी का अहित करने की आग भड़क उठती तो वह पहले उसी के पुण्य को खाक कर देती है जो उसे अपने भीतर स्थान देता है । पापी तो दो चार वार पाप करके रुक भी जा सकता है किन्तु पापों का चिन्तन करने वाला सौस-सौस पर पाप किया करता है, उसके पापों को सम्त नहीं है। देवदत्त हर घड़ी दुद्ददेव को समाप्त करने की धुन में पागस जेसा हो गया था । पहले उसने जो आग भडकाई थी वह मब उसी को हर घड़ी कुलसाया करती थो । एक थोर तो देवदत्त आत्म-स्तुति उसी मुद्रा मे बंठ कर कर रहा था जिस मुद्रा में बेठ कर बुद्धदेव भिक्षुसघ के सामने अपने विचार रखते थे, दूसरी ओर कुछ भिक्षु खसी, भेड़ और हिरण का गला घोठ रहे थे-- उनका ऐसा ख्याल था कि अस्त्र से आघात करने पर हिसा होती है, जो पाप है। रस्सी का फन्दा बनाकर गला धोंट देने से सुन बाहर नहीं निकलता, रक्‍्तपात नहीं होता, अतः यह हिंसा नही है । यह बाल उन्होंने श्घ




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