मणिभद्र | Manibhadra
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
152
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(७)
'. भव करनेवाले मददापुद्ोंकी उसके प्रति फिर विल्कुल ही रुचि नददीं रहती । ऐसे
ठोगोंको विकारॉके रोककर भी फिर प्रति क्षण प्रयत्न नहीं करना पढ़ता । कारण
थे विकार-जन्य आनन्दका अनुभव न करके उससे अनन्त शुणे आत्म-सम्बन्धक्े
हेनेनरे उ और भरताम आनन्दका अनुभव करने लगते हैं । इसी प्रकारका
भात्मपिवाह् सणिसदर लैर रलमाछाका हुआ है । यदी विवाद इम लोगोंका आदशे
हना चाहिए 1 इ सम्बन्धका यथाथ आशय दी यह है कि इम छोग विषयेतति
मुक्त दोकर शुद्ध आात्ममके अनुभव करनेकी भावना रक्ें ।
इस उपन्यासमें इस बातके दिखानेका मौ यत्न किया गय। है फि उष समय
'. बीरप्रमुका समाज पर कितना प्रभव था । वीरे प्रमुत्तको देख कर फिर
यह आश्वर्यं नही रहता जे प्रमु जहाँ जहौ पथारते थे वद वर्की जनता
उनकी दिव्य प्रतिमाके तेजते क्यों चकचोंधिया जाती । उस समय चाहे
कैसी ही विरोध-विद्वेपपूरण परिस्थिति क्यों न होती, परन्दु जहाँ भं उत ओर
गये कि सब विरोधियेंकि भपने आप ही प्रमुके चरणोंमें सिर छझुकानेकी
स्वयं प्रेरणा होती थी और फिट वे अपने सपर मत-मेद सम्बन्धी वैरविरोघ-
को भूर जते थे । ईस समय भी किरी किसी परम चरित्रशीक्त महात्माके
सम्बन्धमें ऐसी दी कुछ कुछ वाते घुनी जाती है । त व^परमु-सद्श महापुखेकि
अद्भुत भम वेक समबन्धमे तो कमा श क्या | समन्तमदरेे यद जो विरोधियों की
खमा भरो थी उषे पमु अते द जा परिवतेन हे गया वह एक बद ह अद्भत
य दै । हस बुदि-वादे युगम 8 पध] 19108 भाव्यातिक बडी भसौ
चाहिए पैसों मान्यता न रहवेके कारण ऐसी घटनाओं लोगे का दती है;
परन्तु, उने जानन चाहिए कि भाध्यात्मिक वर एक ऐस। ब है फि उसके सामने
सव बल निधत्त हो जाते हैं । इस प्रभावका स्ररूप वे ही लोग देख सकते हैं
लो श्रते लहपको समस दु है । पसे भनुभवमे न अनव वियषकी इद्धि
द्वारा शब्देंगि व्याख्या करना थ दै । सिभनोजा ( 90008 ) वामके एक
... तत्त्यवेत्ताने बहुत दीक कहा दैः-- ° {0 08006 000 ४ {0 वधा पण,
अथर् इरी व्याख्या करना मानों उस भस्वीकार करना है। ” खच्च
जब उपका सरूप ही बुद्धि रतपनामे नदी भा सशता तब उन्न प्रभाव,
जो स्वरूपते उत्पन्न दवता है, कैसे कल्पनामें भा सकता है ! यह रुग शरीरबर,
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