मणिभद्र | Manibhadra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(७) '. भव करनेवाले मददापुद्ोंकी उसके प्रति फिर विल्कुल ही रुचि नददीं रहती । ऐसे ठोगोंको विकारॉके रोककर भी फिर प्रति क्षण प्रयत्न नहीं करना पढ़ता । कारण थे विकार-जन्य आनन्दका अनुभव न करके उससे अनन्त शुणे आत्म-सम्बन्धक्े हेनेनरे उ और भरताम आनन्दका अनुभव करने लगते हैं । इसी प्रकारका भात्मपिवाह्‌ सणिसदर लैर रलमाछाका हुआ है । यदी विवाद इम लोगोंका आदशे हना चाहिए 1 इ सम्बन्धका यथाथ आशय दी यह है कि इम छोग विषयेतति मुक्त दोकर शुद्ध आात्ममके अनुभव करनेकी भावना रक्‍ें । इस उपन्यासमें इस बातके दिखानेका मौ यत्न किया गय। है फि उष समय '. बीरप्रमुका समाज पर कितना प्रभव था । वीरे प्रमुत्तको देख कर फिर यह आश्वर्यं नही रहता जे प्रमु जहाँ जहौ पथारते थे वद वर्की जनता उनकी दिव्य प्रतिमाके तेजते क्यों चकचोंधिया जाती । उस समय चाहे कैसी ही विरोध-विद्वेपपूरण परिस्थिति क्यों न होती, परन्दु जहाँ भं उत ओर गये कि सब विरोधियेंकि भपने आप ही प्रमुके चरणोंमें सिर छझुकानेकी स्वयं प्रेरणा होती थी और फिट वे अपने सपर मत-मेद सम्बन्धी वैरविरोघ- को भूर जते थे । ईस समय भी किरी किसी परम चरित्रशीक्त महात्माके सम्बन्धमें ऐसी दी कुछ कुछ वाते घुनी जाती है । त व^परमु-सद्श महापुखेकि अद्भुत भम वेक समबन्धमे तो कमा श क्या | समन्तमदरेे यद जो विरोधियों की खमा भरो थी उषे पमु अते द जा परिवतेन हे गया वह एक बद ह अद्भत य दै । हस बुदि-वादे युगम 8 पध] 19108 भाव्यातिक बडी भसौ चाहिए पैसों मान्यता न रहवेके कारण ऐसी घटनाओं लोगे का दती है; परन्तु, उने जानन चाहिए कि भाध्यात्मिक वर एक ऐस। ब है फि उसके सामने सव बल निधत्त हो जाते हैं । इस प्रभावका स्ररूप वे ही लोग देख सकते हैं लो श्रते लहपको समस दु है । पसे भनुभवमे न अनव वियषकी इद्धि द्वारा शब्देंगि व्याख्या करना थ दै । सिभनोजा ( 90008 ) वामके एक ... तत्त्यवेत्ताने बहुत दीक कहा दैः-- ° {0 08006 000 ४ {0 वधा पण, अथर्‌ इरी व्याख्या करना मानों उस भस्वीकार करना है। ” खच्च जब उपका सरूप ही बुद्धि रतपनामे नदी भा सशता तब उन्न प्रभाव, जो स्वरूपते उत्पन्न दवता है, कैसे कल्पनामें भा सकता है ! यह रुग शरीरबर,




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