सीधी चढान | Seedhi Chadhan

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Seedhi Chadhan by कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी - Kanaiyalal Maneklal Munshiमंजुला वीरदेव - Manjula Veerdev

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी - Kanaiyalal Maneklal Munshi

No Information available about कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी - Kanaiyalal Maneklal Munshi

Add Infomation AboutKanaiyalal Maneklal Munshi

मंजुला वीरदेव - Manjula Veerdev

No Information available about मंजुला वीरदेव - Manjula Veerdev

Add Infomation AboutManjula Veerdev

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
बस्बई की गलियों सें १६ हुई इटों पर पैर रखकर गली पार करनी पडती थी ¦ कोलाहल-पू्ण इस जन-समृह के श्रावास में; ऊपर की मंजिल वाले, निप्वली मंजिल वालों के कानों में सारा दिन “नल बन करो” की त्ावाजें पहुंचाते रहते थे } नीचे से कच्चे आम बेचने वाले ऊपर वालों को सुनाने के लिटः च्रावाज लगाते-“ पायरी श्राकूस,” इसके जवाब में दम कहते-'“बंरी डफ्फूस” (ख्रियों को खाने वाले) श्र मुँह में आराम का स्वाद लेते थे | मैं बीमारी से उठा था | मैं हवा और रोशनी से भरपूर हवेली में पला हुश्रा--तापी बहन का लाड़ला था, इसलिए मामी-मामाओं ने मेरे लिए, जो कुछ हो सकता था, किया । झपने लड़कों से भी श्रधिक सुविधाएं दीं, जो लञ्जावश मुभे स्वयं श्स्वीकार करनी पड़ीं | थोडे दिनों बाद्‌ एल. एल. वी. मे पहने बलेटो पित्रौंके साथ मिलकर मेने निश्चय करिया कि हम तीनों कमरा लेकर इकट्ठे रहें । हम तीनों कमरा तलाश करने के लिए निकले | जहां जते, वहीं प्रन होता था- “स्त्री है क्या ?” ““खटला हाय का ?” और हमारे “नहीं” कहते ही हमें कोरा जवाब मिल जाता था । “हम अच्छे ञ्राद्मी हैं”-हमारे इस प्रमाणपत्र की उनके लिए कोई कीमत नहीं थी । मेरे पुराने मास्टर की बात सच थी-''स्त्री-हीन पुरुष विश्वसंनीय केसे हो सकता हे ?”” अन्त में कांदावाड़ी में 'कानजी खेतसी” की चाल में “भैया” (चॉकी- दार) की मनाही की झवहेलना करके हम ट्रस्टी के पास पहुंचे, जो वहीं बेटे हुए: थे | ट्रस्टी ने मेरा नाम सुनकर पूछा-'“डाकोर में जो झघुभाई मुन्शी थे, उनके तुम कोइ सम्बन्धी होते हो?” “हां, मैं उनका मतीजा हूँ,” मैने कहा | ““मेयाजी,”” ट्रस्टी ने श्राज्ञ दी, ““इनकों श्रच्छी खोली (कमरा) दो ।”” उन्हीं चालों का एक शिनि मै द्रस्य चनूगा, इसकी कल्पना मैंने उस समय स्वप्न मैं भी नहीं की थी | हमने जो कमरा लिया, उसके पास ग़रीब वग॑ के मारवाड़ी रहते थे | १ श्राधे रास्ते, पृष्ट १४९.




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now