लखनऊ की कब्र भाग - 5 | Lucknow Ki Kabra Bhag - 5

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Lucknow Ki Kabra Bhag - 5 by पं. किशोरीलाल गोस्वामी - Pt. Kishorilal Goswami

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१५ # लखनऊ की दल २ कि खुद्दा के फ़ज़ठ से हमारा तुम्हारा साथ हो गया है, तो यह बात इन्सा नियत के बईद है कि मेरे पास पैसे के होते हुए भी तुम भीख मांगों और मैं चैन उड़ाऊ ! सहीं, ऐसा हर्गिज़ ने होगा गौर मेँ हत्तुर-मकदूर तुम्हें तकली फ़ पाने न दूंगा (= उस दिलावर अजनबी की ऐसी 'दिलेरो की श्रातं सुनकर मैने उसका शुक्रिया अदा किया, यौर उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर बड़ों मुद्दब्यत के साथ चूम लिया । इसके बाद खुदा-सदा कहकर हम दानों उठ खड़े हुए मौर बस्ती को तलाश एक तरफ को रघाना हुए। मैं हर-चहार-तरफ़ उस जडूल में नज़र दौड़ा-दौड़ा- कर इस बात की ब्हीशिश में लगा हुआ था कि जिसमें उस जजुल को चखूबी पहचान रकखूं, क्योंकि शायद कभी उस जजल में फिर जाने का इत्तिफ़ाक होजाय ! मगर मेरो उस जांच-परताठ का देखकर मेरे साथी मै मुझे टोका और इंसकर यों कहा,--'चल्लाद, तुमतों, मई ! इस जडल को बड़े गौर के साथ देख रहे हों 1” मैने कद्दा,--“ हां, यद्द तुमने ठीक समका; चजह इसकी यह है कि मेरे ऐसे बदयद्ध के छिये जड़ल-पहाड़ों को बरौर देखना चेसा हो है, जैसा कि दौखतमन्द शख्सों का गुलज़ार चमतों या पुर-भावाद्‌ शहरों का मुलाहिज़ा करना ! * लेकिन, मेरे इस फिक्र का फिर उसने कुछ जवाब न दिया और मैं उस रास्ते को खूब गौर के साथ देखता और दिछदी दिल में उसका नक्शा खेंखता हुआ एक तरफ़ को छा | उस वक्त मेरा चह मन चला साथी अपने खुरीठे गछे से यों तान उड़ाने लग गया था,-- « बह्दार जाई हैं मरदे बादयेरुलूगं से पैसाना । रहे डालो बरस साकी तेरा गावाद्‌ परैखानः | हि




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