गुप्त धन | Gupt Dhan

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Gupt Dhan by भगवती प्रसाद बाजपेयी - Bhagwati Prasad Bajpeyi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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:¶७ केवल विचार करने के लिए शेप रह गये हैं ।--केवल आचार के है, विचारों की टकराहट भी जिन्हें टस-से-मस नहीं कर | 1 क्या उन माँ जो को भुला सकता हूँ जो त्रपुणः जिन्होंने मुझे जीविका दी थी और. . जिनकी वदीलत मैं आदमी यना । इसी घर मे जिन्होंने कचन लुटाया और लुटाया सिर्फ हम दोन-दुखियों और गरीवों के लिए । कभी जो किसी ने उनसे दस रुपये मणि, तो एक तो उन्होंने इनकार नहीं किया । दूसरे देते समय यह्‌ भी कह्‌ दिया--“भौर ज्यादा जरूरत हो, तो कट देना सकोच न करना ! ;--” हालांकि इसका फन अकसर यही हुआ कि मांगने वाला जो लेने आया दस, तो ले गया वीस । ऐसी कितनी माताएं इस दुनिया मे हैं ? फिर पलक भीग उठे है ! फिर आँसू पोंछ लिये उसने । फिर ध्यान आ गया--चामियों का गुच्छा ? फ़िर उसे उसी जमीन पर से उठांती हुई कहने लगी थी--“मेरा कुछ नही है । अन्तमे जब सब कुछ तुम्हदी लोगों को मिलना है, तो अभी वयो न मिले ! फिर, आँखों के आगे की वात और होती है। मरने के वाद क्या होगा, कौन जानता है!” टप टप टप ! ये भाँसू गिर रहे हैं जोधा के, या उसकी पावन आत्मा का रस झर रहा है ! उसे पता नहीं चल सका कि कव गुरुदेव चुपचाप निकट आकर उसे देखने लगे । फिर उसने गमछे, से आँसो के आँसू पोंछे और जसे चकते हुए एक ओर देखा ! क ~~ गु.




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