जैन जगत | Jain Jagat
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
40 MB
कुल पष्ठ :
632
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)द
दि हरण्क दृष्टिसि उत्तम होता हैः परंतु
: सकते ।
सोच मूठ मचुष्यमें इतना घिजेक नहीं होता ।
प्ारम्म में आजीविका की सुधिधा के लिये
चार जातिया वनः गर् थीं । पीछे से वे चेश-
परंपरा के लिये स्थिर छोगई। वाद में बेटीव्यय
रभी उन्हीं में सीमित हुआ आर जिनने इन
बेडीव्यवहग के सियमों का भज किया उनकी
जुदी जुद्ठी जातियों # चन गई। इसके याद तो
खानपान के भी चन्घन सउयूतन सोनम तथा दिद
दलबी सर्द हज़ारों संख्यां जनिय दिव
लाई देने लगीं । अपनी ही जाति में रोठी चटी-
व्यवहाए सीमित हो गया । दूसरी जातियों में
भोजन करना अपराध माना जाने छगा। फठतः
ब्यपनी जाएले फो सबोच्च मानने की भावना दृढ़
होती गई । यहां तक कि कौनसी जाति उँंच है
शर कौनसी नीच, इसकी जावे इस वात पर
होने लगी कि कोन किसके हाथका मोजन कर
सकत। है । हरणक जाति इस यानकी को शिण
कर्ने लगी फि हमार साथ कोई दूसरी जाति
का आदमी भोजन न करते । इसके दो विचित्र
नमूने देग्यिये !
पक चार कुछ भगी पंक्तिभोजन कर् रहे
थे । उन्चचर्णी लोगों के यहाँ जब भोज होता है
घोर पत्तनों में जो उच्छिए चचता है उसे मेगी
सजाने हैं भोग खाते हैं परन्तु उन उन्िष्र- `
भोजी मंशियों न पक उच्चचर्णी हिन्दू को अपनी `
पंक़ि के भीतर किसी अन्य काय से नहीं थाने
दिया ! जिसकी पत्तल का उच्छिप्ट खाते हैं
& इस विपयमें विशेष विवेचन आगे उठे अध्यायमें |
किया जायगा ।
जैनलगत्
, कै उपलेच्य में जब
[ वषं ८ अङ्क २
भोजन करते समय उसका स्पर्श नहीं सह
महात्मा गांधी जी के पतितोद्धार क उपचासों
अलुतों के साथ सह-
भोज दुप नो एक जगह ( शायद इन्दौर में
चमारों ने उश्वचर्फियों के लिये भोजन तो ते-
यार किया परन्तु उनके साध खाना संजर से
फिया । |
दूस्तरी जातियों को मीय
के ये बेहद फल हैं। जन उ
को नीच स्पसटा कर उसके साथ सहमोज करने
सं अपमान समझा तवच नीच कलाम य लो की
. तरफ़ से उसकी परतिशिया हुई । उनने भी
उच्चवागियों का अपमान करने के लिये उसके
साथ न खाने दे, नियम बनाये । उच्छिए सोजन
को उनसे एफ व्यापार समझा छोर उखयर्णियों
के साथ सहभोज के निषेध को धरम । इस
प्रकार भंगी से लेकर घाह्मण तक सभी जातियों
में भोजन के नाम पर एक दूसरे का अपमान
करने की एक प्रतियोगिता ( होड़, हरीफाई )
होने लगी । भो जन-शुद्धि का सिद्धान्त तो नर
होगया झार उसका स्थान जासिमद ने लेति-
' या । सभी णक दूसरे को लीचा समभने लगे |
(ग)-इस उच्च-नीचता के अहंकार रूपी पाप-
राज का शासन यहाँ तक फेंला कि दसरी जाति
के हाथ का पानी पीना नक्रः अधर माना जाने
लगा । पक गंदे नाले का न्होग पानी पीलगे
परन्तु दूसरी जाति के यहां पानी न पियंसे !
यटा नक कि अत कहलाने वालों की तो धात
दूसरी है परन्तु साली काछी झादि के हाथ का
पानी-नो क्रि धपन सामने अपने ही बतन में
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