जैन जगत | Jain Jagat

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Jain Jagat  by दरबारीलाल न्यायतीर्थ - Darabarilal Nyayatirth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द दि हरण्क दृष्टिसि उत्तम होता हैः परंतु : सकते । सोच मूठ मचुष्यमें इतना घिजेक नहीं होता । प्ारम्म में आजीविका की सुधिधा के लिये चार जातिया वनः गर्‌ थीं । पीछे से वे चेश- परंपरा के लिये स्थिर छोगई। वाद में बेटीव्यय रभी उन्हीं में सीमित हुआ आर जिनने इन बेडीव्यवहग के सियमों का भज किया उनकी जुदी जुद्ठी जातियों # चन गई। इसके याद तो खानपान के भी चन्घन सउयूतन सोनम तथा दिद दलबी सर्द हज़ारों संख्यां जनिय दिव लाई देने लगीं । अपनी ही जाति में रोठी चटी- व्यवहाए सीमित हो गया । दूसरी जातियों में भोजन करना अपराध माना जाने छगा। फठतः ब्यपनी जाएले फो सबोच्च मानने की भावना दृढ़ होती गई । यहां तक कि कौनसी जाति उँंच है शर कौनसी नीच, इसकी जावे इस वात पर होने लगी कि कोन किसके हाथका मोजन कर सकत। है । हरणक जाति इस यानकी को शिण कर्ने लगी फि हमार साथ कोई दूसरी जाति का आदमी भोजन न करते । इसके दो विचित्र नमूने देग्यिये ! पक चार कुछ भगी पंक्तिभोजन कर्‌ रहे थे । उन्चचर्णी लोगों के यहाँ जब भोज होता है घोर पत्तनों में जो उच्छिए चचता है उसे मेगी सजाने हैं भोग खाते हैं परन्तु उन उन्िष्र- ` भोजी मंशियों न पक उच्चचर्णी हिन्दू को अपनी ` पंक़ि के भीतर किसी अन्य काय से नहीं थाने दिया ! जिसकी पत्तल का उच्छिप्ट खाते हैं & इस विपयमें विशेष विवेचन आगे उठे अध्यायमें | किया जायगा । जैनलगत्‌ , कै उपलेच्य में जब [ वषं ८ अङ्क २ भोजन करते समय उसका स्पर्श नहीं सह महात्मा गांधी जी के पतितोद्धार क उपचासों अलुतों के साथ सह- भोज दुप नो एक जगह ( शायद इन्दौर में चमारों ने उश्वचर्फियों के लिये भोजन तो ते- यार किया परन्तु उनके साध खाना संजर से फिया । | दूस्तरी जातियों को मीय के ये बेहद फल हैं। जन उ को नीच स्पसटा कर उसके साथ सहमोज करने सं अपमान समझा तवच नीच कलाम य लो की . तरफ़ से उसकी परतिशिया हुई । उनने भी उच्चवागियों का अपमान करने के लिये उसके साथ न खाने दे, नियम बनाये । उच्छिए सोजन को उनसे एफ व्यापार समझा छोर उखयर्णियों के साथ सहभोज के निषेध को धरम । इस प्रकार भंगी से लेकर घाह्मण तक सभी जातियों में भोजन के नाम पर एक दूसरे का अपमान करने की एक प्रतियोगिता ( होड़, हरीफाई ) होने लगी । भो जन-शुद्धि का सिद्धान्त तो नर होगया झार उसका स्थान जासिमद ने लेति- ' या । सभी णक दूसरे को लीचा समभने लगे | (ग)-इस उच्च-नीचता के अहंकार रूपी पाप- राज का शासन यहाँ तक फेंला कि दसरी जाति के हाथ का पानी पीना नक्रः अधर माना जाने लगा । पक गंदे नाले का न्होग पानी पीलगे परन्तु दूसरी जाति के यहां पानी न पियंसे ! यटा नक कि अत कहलाने वालों की तो धात दूसरी है परन्तु साली काछी झादि के हाथ का पानी-नो क्रि धपन सामने अपने ही बतन में




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