स्वभाव बोध मार्तण्ड | Sawbhav Bhodh Martand (1946) Ac 956

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Sawbhav Bhodh Martand (1946) Ac 956 by मुन्नालाल काव्यतीर्थ - Munnalal Kavyateerth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१९) की पुडिया अथवा कपेकी प्रानी चर, यह अपने अस्थिर स्वभावो प्रगट करती है । पर मूर्ख लोग इसस खेद रूगाते हैं, यह सुखकी घातक और बुराइयोंकी खानि है । इसहके प्रेम और सगतिसे हमारी बुद्धि कोल्दूके बेठके समान संसारमें चक्कर लगाने वाली हो गई है । इस प्रकारके धिनाबने शरीरको दखङरभी तुम्दे अपन आत्म कल्याण करनेमें रुचि क्यों नहीं होती है ? और भी कहत हैं सो सुनो-सबस पहेठे मनुष्यको एसो चिंतवन करना चाहिये कि-य शरीरकी छाया तो अपनीही है। जब तुम अपनीही छाया पर मुग्ध होकर उसके पीछे पीछे दौडोगी तब वह छाया तुम्हरे हाय तो न आवेगी प्रत्युत बह आगे आग भागी ही चली जा्वेगी । जब तुम्हारा ये विचार दो जावेगा कि हमें इस छायांस कोई प्रयोजन नहीं है, उसका पीछा छोड कर पीछा लौटकर आने लगोगे तब वहीं छाया तुम्हार पीछे पीछे स्वयमेव दौड़ी आवेगी । उसी तरह हम जिस समय इन पर पदार्थाकों प्राप्त करनेके लिये इनके पीछे २ दौडेमे तब ये पदार्थं हमसे द्र २ दही भागेंगे जब हम इनका पीछा छोड देंगे तो ये हमारे पीछे दौडेंगे । विचार इतना ही होना चाहिये कि हमें इन पदार्थोके पीछे दौड़ने पर और इनक मिलजाने पर भरी ये हमारे बयकर रह सद्ग या नहीं! पुण्य; पापके उदयानुसार दही इनका संयोग




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