विधवा - कर्तव्य | Vidhava Kartavy

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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९१ मेरी वहनो,. संसारका कुछ ऐसा अजीब खेल हे कि अनेक प्रकारके मारौ भारी कष्ट सहता हुआ तो यह आदमी कभी अपनेको महासुखी मान लेता है, और किसी भी प्रकारका कोई कष्ट न होते हुए भी कभी अपनेको दुः्सी समझने ठगता है । तुम नित्य देखती हो कि बच्चा जननेवाठी ल्रियाँ कितना दुःख उठाती हैं । अव्वठ तो उनको नो महीने तक बच्चेको पेटमें रखना पढ़ता है जिसके कारण उनका धरसे बाहर निकठना, किसीके यहाँ आना जाना, और धरके बहुत से काम करना भी बन्द हो जाते हैं । फिर बच्चेके जनते समय जो तकलीफ उनको उठानी पढ़ती है उसको याद करके तो कलेजा दहठने छगता है । फिर दस दिन त्क उनको प्रसू- तिगृह या जच्चाखानेमें इस प्रकार पढ़ा रहना पढ़ता है जेसे कोई नरककुंडें पढ़ा हो और उसपर तुरौ यह रै क रशी भी वहीं खानी पढ़ती है। इसके वाद्‌ जचाखानेसे हर आकर भी, दो वर्ष तक मंदर्गीहीमें रहना होता है । बच्चा आधी पिछली रात टट्टी फिर देता है ओर मौ वि्तरके पटेको उलट कर उस पर टी पडी र्ती है, बा ववार विस्तर पर मूतता है और उसकी माता उसको सूसेमें करके आप उसके मूत पर ही पढ़ी रहती है। माँ वच्चेको गोदीमें छिये रोटी सा रही है, बच्चा वहीं ठट्टी कर देता है; ठाचार घच्चेकी माँ उसकी टट्टीको कपड़ेसे छिपाकर उस ही तरह चेठी रोटी खाती रहती दै । जव तक बच्चा दूध पीता है बच्चेकी माताकों




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