हिंदी साहित्य का बृहत इतिहास भाग - 4 | Hindi Sahity Ka Brihat Itihas Bhag - 4
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
22 MB
कुल पष्ठ :
588
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)संपादकीय वक्तव्य
'हिंदी साहित्य के दृहत् इतिहास का यह चतुर्थ भाग मध्यकालीन संत-
साहित्य एवं सूफी साहित्य से संबद्ध है । ये दोनों प्रकार के वाइ मय हमारे यहाँ
बहुत दिनों तक न्यूनाधिक उपेक्षा की ष्टि ते देखे जति रहे है | श्रनेक हिंटी प्र मी
विद्वानों की ऐसी कुछ घारणा-सी बन गई थी कि, वास्तव में, काव्य की दृष्टि से
देखने पर इनकी बहुत कम रचनाएं उस कोटि में रखी था सकती हैं लिसे काव्य-
शाह्न के नियमानुसार 'विशुद्ध काव्य कहा था सकता है । वे इसी कारण, न तो
इनकी शोर यचेष्ट ध्यान दे पते थे, न इनके समुचित मूल्याकन का कोई यह्न दी
किया करते थे । किंतु इपघर कुछ दिनों से ऐवे सज्जनों की मनोबत्ति में भी कुछ न
कुच परिवर्तन श्रा गया अन पड़ता हैश्रौर दम देखते हैं कि, न केवल इस प्रकार
के प्रंथों का प्रकाशन कार्य बढ़ता जा रहा दै, प्रत्युत संत एवं सूफी कवियों के
संबंध में शोध कार्य तक भी किया जाने लगा है । इस प्रकार क्रमशः इनका महत्व
दिनौंदिन बढ़ता नाता सा समन पढ़ता है | श्रतएव, श्रच ऐसा समय मी श्रा गया
है कि हम, इनके झष्ययन के धार पर, इनकी उन विशेषताश्रो कामी कोई
पर्वालोचन करें जिनके कारण श्रमी तक इनके प्रति उदासीन रहने की प्रवृत्ति
देखो थाती श्राई है तथा जिनका फिर भी श्रपना एरथक् मूल्य एवं महत्व भी दो
सकता है |
संयोगवश जिस युग ( श्र्थात् संवत् १४०० से लेकर संवत् १७०० विक्रमी
तक ) में रची गईं कृतियों को यहाँ चर्चा की गई है तथा उनके श्राधार पर किसी
प्रबूत्तिविशेष के परखने की चेष्टा दीख पड़ेगी, वह इनका “स्वर्ण युगः भी कहला
सकत। है श्रौर उसी में प्रतिष्टित किए, गए. श्रादर्शों' का झनुसरण पीछे किबा गया
मी ठहराया था सकता है । इसलिये कदाचित् हमारा यह कहना भी श्रसंगत नहीं हो
सकता कि, इसके कारण, प्रस्तुत माग का महत्व श्रोर भी बढ़ लाता है। कहना न
दोगा कि कुछ इसी प्रकार का श्राशय लेकर, हम ने इसे तैयार करने का संकल्प किया
था श्रीर तदनुसार एक ऐसी दधित योजना भी निमित की यी लिसकी पूर्ति की
दशा में इमे इस संबंध में पूर्ण संतोष का श्रनुमव दो जा सकता था। परंतु ऐसा
करते समय हमारे छामने श्रनेक प्रकरकी रती बाधां भी उपस्थित होती गई
खिनपर विधव पाना सरल नहीं या । सर्वप्रथम कठिनाई उस प्रामाणिक सामग्री के
अभाव की थी जिसके श्राधार पर ही यथेष्ट सफलता का मिलना संभव था । इसी प्रकार
एक श्रन्य निसत्साहित करनेवाली बात इस रूप में भी दोख पढ़ी कि हमारे श्रपने
हभी सुयोग्य बंबु्ों की श्रोर से कोई यथेष्ट सुंदर सइयोग नहीं मिल पाया जिससे
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