भरत बाहुवली महा काव्यम | bharat Bahuvali Maha Kavyam

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Book Image : भरत बाहुवली महा काव्यम  - bharat Bahuvali Maha Kavyam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ स्मौ के अन्तिम ध्लोकीं के छन्द इस प्रकार हैं-- १* सालिनी १०. मालिनी २. बषंततिलकां ११. मन्दाक्रान्ता ३. न १२. ण ४, १३. शाद्‌ डित ५. पुष्पिताग्रा १६; मालिनी ६. शादलविकीडित १५. वसंततिलका ७. हरिणी १६. स्रग्धरा ८, वसंततिलका १७. श्दृलचिक्रीडित ६. शिखरिणी १०. वसंततिलका रचनाकार ओर रचनाकाल प्रस्तुत काष्य के कर्ता प्रचलित परम्परा से मुक्त विचार वाते प्रतीत होते है । उन्होंने काव्य के आरंभ में नमस्कार और अन्त मे प्रशस्ति की परंपरा का निर्वाह नहीं किया है । उन्होने प्रत्येक सगं के अन्तिम शलोक मेँ शुण्योदय' शब्द कां प्रयोग किया है । यह कवि के नाम का सुचक है। कवि ने “पुण्यकुशल' नाम को स्पष्ट प्रयोग कही भी नहीं किया है। किन्तु पंजिका में कवि का नाम 'पुण्यकुशल' मिलता है । पंजिकायुक्त प्रति में प्रत्येक सगे के अन्त में पूर्ति की पंक्तियां लिखी हुई है । उनसे ज्ञात होता है कि 'पुण्यकुशलगणि' तपागच्छ के विजयसेनसूरी के प्ररिष्यं भौर और पंडित सोमकुशलगणि के शिष्य थे। उन्होंने प्रस्तुत काव्य विजयसेनसूरि के ज्ञासन काल में लिखा था' । विजग्रसेनसुरी का अस्तित्व काल विक्रम की सतरहवीं शतान्दी है । कनककुंशलगणि पुण्यकुशलगणि के गुरुभाई थे । उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे । उनका रचना-काल वि० सं० १६४१ से प्रारम्भ होता है और वि० १६६७ तक उनकी लिखी रचनाए प्राप्त होती हैं । प्रस्तुत काव्य की रचना का निष्चित समय ज्ञातं नही है । इतना निश्चित है कि इसकी रचना सतरहवीं शताब्दी के मध्य में हुई है । आगरा के 'विजयधमंसुरी ज्ञानमन्दिर' में प्रस्तुत काव्य की एक प्रति प्राप्त है । उसका लिपिकाल वि० सं० १९६५९ है। इससे रचनाकाल की सीमा वि० १६४५४ से पूवं निश्चित होती है । पंजिका यह प्रस्तुत काव्य का व्याख्या प्रंथ है। 'पब्जिका पद-भव्जिका'--इस बाक्य के अनुसार पञ्जिका मे केवल पदों का संक्षिप्त अथं होता है । इसमें प्रत्येक सगं की पंजिका के अन्त में एक-एक श्लोक लिखा हुआ मिलता है। उसमें पंजिकाकार का नाम नहीं है : १. देखें--संभीय पतिपरिचय । २. थन साहित्य का बृहद्‌ इतिहास, भाग ६, पृष्ठ २६१, २६२




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