प्रार्थना-प्रबोध | Prarthana-Prabodh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रार्थना-प्रवोध ] | {३ परमात्मा की प्रार्थना, किसी भी स्थान पर ओर किसी भी परिस्थिति में की जा सकती हू । पर प्राथना से आत्म-समपंण की श्रनिचा्य श्रवश्यकृता रहतो दै ! प्राथना करने वाला अपनी व्यक्तिगत सत्ता को भूल जाता है । वह परमात्मा के साथ अपना तादात्म्य-सा स्थापित कर लता हू । बन्तुत्तः शास्मोत्सग के बिना सच्ची प्राथना नदी दो सकती । इसलिए भक्तघन कहते है-- तन धन प्राण सम प्रमु ने इन पर वेगि रिंकास्या राज 1 प्र्थान्‌--परमात्मा की प्राशरना करने मं तत्त, घन श्रौरं प्राण भी अपणु कर दूंगा । यदि तुम्दारे चम-चन्नु इश्वर का सांक्षात्कार करने में समर्थ नहीं हैं तो इससे क्या हुआ ? चमं-चजु के श्रतिरिक्त ृद्य-चह्ु सी है श्योर उस चल पर विश्वास भी किया जा सकता है । पर- मात्मा की प्राथना के विपप्र में ज्ञानी जन यही कहते हैं कि तुम चम-चलुश्नो पर ही सिभर न रहो। हमारी वात मानों । बचपन में जवर तुमन वहुत-मी वसतु नदी देखी होती तव माता के कथन पर्‌ तुम भसेसा रखन हो । क्या उसमे तुम्दे कमी हानि हई ट? वचपनर्मे तुम साप को भी साधनी समभततेथे । मगर माता पर विश्वास रखकर ही तुम सांप को सांप समक सके दो थीर सांप के दशस अपनी रक्षा कर सके हो । फिर उन ज्ञानियों पर, जिनके दय में माता के समान करुणा श्र वात्सल्य का श्रविरल सोत प्रवाहित होता रहता हि; श्रद्धा रखन से तुम्हें नि केसे हो सकती हूं? उत्त पर विश्वास रखन से तुष्टे दानि कदापि न होगी, प्रसुव लाभ ही दोगा । अतएव जब ज्ञानी जन कदत है, कि परमात्मा है आर उसकी प्राथना--स्तुति करने मे शान्तिल्लाभ दोता है तो




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