धर्म मीमांसा | Dharam Mimansa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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'घर्मका स्वरूप ९. ^ 98 व न ध भ भ 0 ज र ~ ५ तो इस्टामियोके वर्तमान कार्योको अनुचित समझते हुए भी इस्लामको सहन कर सकेंगे | अव मे वेदिक धर्मकी एक बात छेता हूँ । वैदिक धर्मकी वर्णाश्रम- व्यवस्था जैनधर्मको मान्य नहीं है । परन्तु यह कहना ठीक नहीं कि वरदिकधर्मका पक्ष असत्य है या जैनधर्मका पक्ष असत्य है । वैदिक धर्मकी व्णौश्रम-व्यवस्थाको समस्नेके स्यि हमे अपनी दि कई हज़ार वर्ष पहढ़े ढे जाना चाहिये । हम देखते है कि उस समय आर्यको कपिं ओर सेवाके ध्यि आदमी नही मिर्ते- सभी आदमी अयोग्य रहते इए भी पंडिताई या सैनिक जीवन विताना चाहते हे | आवश्यक क्षेत्र आदमी नहीं मिरते; अनावश्यक क्षेत्रमे इतने आदमी भर गये है कि वेकारी फेल गई है । हरएक आदमी महीनेमे तीस वार अपनी आजीविका वदढता है । वह किसी भी काममें अनुभव प्राप्त नहीं कर पाता । ऐसी हाठतमे वर्ण-व्यवस्थाकी योजना होती है । इससे अनुचित प्रतियोगिता वन्द होकर आजीविका- क क्षेत्रका यथायोग्य विभाग होता है| पस्तु इसके वाद महात्मा महावीरे जमानेमे हम देखते दै कि वर्णोने जातियोका रूप पकड़ छिया है | पञ्यओमे जैसे हाथी घो आदि जातियाँ होती है, उसी प्रकार आजीविकाकी सुविधके ढिये किया गया यह सुप्रबन्ध, मनुष्य-जातिके टुकड़े ठुकड़े कर रहा है ! पारस्परिक सहयोगके रि की गई वर्णन्यवस्था परस्पस्मे असहयोग ओर घृणाका प्रचार कर रही है ! सिर्फ़ आजीविकाके क्षेत्रके लिये किया. गया. यह विभाग रोठी-वेठी-व्यवहारमे भी आड़े आ रहा है | इसके कारण दुरा- चासं ब्रामण सदाचारी शद्धकी पूजा नहीं करना चाहता; किन्तु कक कक




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