बुद्धचरित | Budhcharit

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Budhcharit by सूर्यनारायण चौधरी -Suryanarayan Chaudhary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४ बुद्ध चस्ति आकाश से खित हरं ओर शरीर स्प कर सुख देने के लिए उषे सौम्य मस्तके पर परिरं ॥ १६ || ध्रीमद्धिताने कनकोञ्वखाद्गे वैदूयंपादे शयने दायानम्‌ । यद्‌ गीरघात्का्चनपदमहस्ता यक्षाधिपाः संपरिवायं तस्थुः । ९५ सुन्दर वितान से युक्त, सुपणं से उज्ज्य, वैदूयं मभि के पादवलि शयन पर वह पडा हुआ था । उषे गौरव के कारण यश्चपति गण अपने हाथों मे सुवर्ण-कमल लिए, हुए उसे चारों ओर घेर कर सुड़े हुए ॥ १७॥ ५ % दिवौकसः से यस्य प्रभावासणतैः शिरोभिः। अधारयन्‌ पाण्डरमातपयं योधाय जेपुः परमाचिपश्य ।१८। अटशष्य देवताओं ने उषके प्रमावसे दिर घ्ुकाकर आकाशम खेत जातपन धाएग रिया और उसकी बुद्धत्य-प्रा्ठि के लिए उत्तम आदीर्वाद दिये ॥ १८ ॥ महोरगा.. ध्मघिशेपतर्पाद्वुद्धेष्वतीतेपु कताधिकाराः। यमत्यजन्‌ भक्तिविरिष्टनेत्रा मन्दारपुष्प: समवाकिरंश्व ॥१५॥। जिन्दोंने अतीत के बुद्टों की सेवा की थी, उन बड़े बड़े सर्पों ने धर्म विशेष की प्यास से उठके ऊपर ब्यजन डुलाये और भक्ति के कारण अपनी विलक्षण अघो से ( देते हुए ) मन्दार फूल छींटे | १९ || , तथागदोतादगुणेन तुष्टा: शुद्धाधिवासाश्च विशुद्धसच्ष्चा: । देवा ननन्दुर्विंगतेऽपि रागे मग्नस्य दुःखे जगतो हिताय ॥२०॥ उस प्रकार जन्म हने के गुण से सतषट होकर, विशुद्ध' स्वमाववाले शद्वाधिवाषदेवः स्वय राग-रहित होने पर भी, दुभ्खप्रम जगत्‌ का ( भावी ) हित सोचकर, प्रसन्ने हुए ॥ २० ॥ यस्य प्रसूतो गिरिराजकीखा वाताहता नौरिव भृध्वचार । सचन्द्ना चोत्परपद्मगभा पपात वृष्टिमैगनादनभ्रात्‌ ॥२१॥ उसके जन्म में यदद पृथ्वी, जो गिरिराज रूप कीछ से स्थिर है वायु से




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