दृष्टि कोण | Drishti Kon

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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काश कि दस जान पाने ! मेरे एक सम्मान्य मित्र है जो सायंकाल घूमने के लिए साथ लेते दै । वे चाहते हैं कि में उन्हीं की बातें सुनता रहूँ. उन्हें इस वात की तनिक भी चिन्ता नहीं कि जो मे कह्द रहा हूँ उसमें दूसरे की दिलचस्पी है या नहीं । कभी भूलकर श्रपना दृष्टिकोण भी उनके सामने रख देता हूँ तो श्राप उसे कभी स्वीकर नहीं करते । में लाख सही वात कहूँ किन्तु उसका विरोध करने में, उसको किसी प्रकार काट देने में ही शाप श्पना वढड़प्पत समसेंगे । किसी काम को करने के लिए कहने पर वध्वा उसे नदीं करता, निपेधं करने पर करते लगता है । मेरे इन मित्र की अवस्था ४० से अधिक होगई है किन्तु है वे श्रमी तक निरे वच्चे ही । इन्हे मेँ श्ुडढा वाः कहता नदीं, कभी कदू तो तुरन्त वै मेरी नीयत पर शक्र करन लगेंगे । एक दिन मेने कहा--छामुक्त व्यक्ति उनके भाई होते हैं । कहा--भाई हो दी नहीं सकते, '्ोर कुछ भले ही दा । यदद उत्तर सुनकर जय में हसी से लोटपोट दहो गया तवं वे कुच सूने-सने से टिखलाई पड़े । किसी भी बात फो सुनकर उसका निपेध कर देने की उनकी 'मादत ही पड़ गई है, वे उससे लाचार हैं च्रौर फिर इनका इठ भी चच्चे का सा दठ है । प्रीस फे सुरुयात ने ठो न जाने कौन से दाशेनिक्र झ्ें से कहा या--अपने शाप को ज्ञानो । किन्तु में चाहता करिये वु यच्च यदि यह्‌ जान ले श्रि वचपन उनकं साथ चिपटा हस्रा चला ग्रा रहा हैं. तो क्‍या यद्द इनके लिए “झात्मक्ान' से फिसी क्रदर कम हू ? > म्द भ




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