अनकहनी भी कुछ कहनी है | Anakahani Bhi Kuch Kahani Hai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धन की उतनी नहीं मुझे जन की परवा है जितनी जो मुझ से खुल कर मन से मिलता है मैं उस का वशवर्ती हूँ. इस से खिलता है मेरे प्राणों का शतदल. एक ही दवा है जीवन के सौरोगों की, चाहो तो ले लो अच्छे होगे स्वयं, दूसरों के भी दुख को काट सकोगे, उगा सकोगे सबके सुख को, अपनापन सबं पर पसार दो. खल कर खेलो जीवन के सव खेल, न' चिता चेश रहेगी, सभी ओर अपने ही देगे सदय दिखाई नहीं रहेगा कोट, नहीं होगी यह खाई शतु मित्र की. गोरे कलि की न बहेगी नदी खून की, खून एक ही दोनों में है, वही हवा आँगन में है जो कोनों में है. 26. 4. 1951 अनकहनी भी कुछ कटनी है 17




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