मानुषी | Manushi

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Manushi by सियारामशरण गुप्त - Siyaramsharan Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सुषा १५ नाम छिख दिया है। ऐसा न करता, तो क्या करता, उनका रुपया मार खाता ? धमे-फम और छोक-परलोक भी तो कुछ हैं । फलत: एक-एक करके मनोहरढाल के सब हेछी-मेछी , अड़ासी-पढ़ोसी उससे दूर हट गये । ऐसे भयकर आदमी के साथ किसी की पट कैसे सकती थी । सब बार-बन्ये बारे गरीय आदमी थे । मनो्रछार का चिद्वास ही क्या, न-जाने कब, किसके विषय में, घट क्या छापा दे ! इस महाभारत का शात्ति-पवं यहीं पर नहीं हो गया । एक दिन समुद्र अद्दीर ने तहसीलदार के यहाँ दावा किया कि मनोर ने उसे बुरी-बुरी गाछियाँ दो हैं, और बुरी सरह मारा है । सब बातें प्रमाणित करने वाले स्वाथेनत्यागी साक्षियों की भी कमी न थी । उनमें से कुछ सदाय एसे भी थे, जो उस दिन गाँव में भी नहीं थे । नहीं थे, तो क्या हुआ; घर में आग छगी हो, तो नाधदान के पानी से भी उसे बुभाने में दोष नहीं । विपत्ति-काल का घर्से धर्मे की छाती रोव्‌ कर ही चलना दै } गय वारो ने यह्‌ निगूढ तत्त्व अच्छी तरह हृदयंगम कर छिया था ! अतपव स्याय-देवता की श्लुधा यिटाने के किए जितने असत्य फी अविद्यकता थी, उसकी पूर्ति करने में उन्हें कोई दिचकिचाहट नदी हुई । इस तरह




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