प्रायश्चित्त और उन्मुक्तिका बन्धन | Prayashchit Aur Unmuktitka Bandhan

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Prayashchit Aur Unmuktitka Bandhan by पदुमलाल बक्शी- Padumlal Bakshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१९ पहला अंक कमर कुमार, तुम अये नौ आये हो ! बरक्षके नीचे वह कोन खडा है! कुमारसिह-- कमठ, कुछ भय मत करो । वह तुम्हारी ही सेवके दिए खड़ा है । पर तुम उदापत केसी हो ८ तुम्हारा शशेर करप क्यो रहा है १ प्रिय, घेये घेरा । वह देखे, आकाशम नक्षत्र भी हम केगेके आगमनकी प्रतीक्षासे चेचल हो रहे है । आओ, आज तुम्हे मैं अपने हृदय-मंदिरकी अधिछाओ देधी बनाऊँ । पर तुम्हारा भय अब भी नहीं गया है । कया तुम्हें कुछ आशंका हे £ प्रिये, देखो, मैंने तुम्हें अपने ब्राहु-पाशम बद्ध कर च्या हे । तुम इससे मिकल नहीं सकती । अत्र मंदिरकी अंघकार-पृ्ण नयति मत जाओ | प्रेम आजतक उसमे निद्रित था | अब परमने आरेकका दन किया द्॑जाउसेदुकम हो गयाथा। द प्रेमका विजय-दिविस है । आज प्रेमने हम ढोगेंकि हृदर्योको एकत्रित कर भविष्य भाग्यका निश्चय कर दिया | कमला, आज ५ तुम्हे प्रथम वार देखता हूँ, तुम्हों समीप आकर तुम्हे स्पशे वारता हूँ । [ कमलाकों हृदयसे लगा लेता है । ] कमला-- कुमार, मुझे स्पश मत करो, मुझे दूर रहो । क्या तुमने ऐसी ही प्रनिद्ा की यी ?




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