भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर खंड २ | Bhikshu-granth Ratnakar Vol-2

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Bhikshu-granth Ratnakar Vol-2 by आचार्य तुलसी - Acharya Tulsi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका ई काफल भोगं रहा है। यह्‌ सूगापत्र कई जन्म-मरण कर श्रत्त भँ चारितर-धर्म की भ्राराघना कर महाविदेह में जन्म लेगा । वहाँ से पच महाब्रती का पालन कर वह मोक्ष-गति को प्राप्त करेगा ।” सूगालोढा की स्थिति का कारण उसकी एकादरठकूड भव की क्रूरता, पापबुद्धि और अन्तिम समय तक कौ श्रासक्तिथी। कंसी वृत्तियो से जीव की मृगालोढा कौ-सी दयनीय स्थिति होती है इसका चित्र स्वामीजी ने इस व्याख्यान की ढाल ८ वी मे दिया है। उसका कुछ भ्रंश इस प्रकार दै * ते पांच सो गाम नो अधिपति जी, एकादर्क्ट थो नाम । ते अधर्मी अधमं छ्वे जी, रीभतों प्ट काम हो वले अधमं मीठो तहने जी, अधमं री सुख वात। तिणरों अधर्म सील आचार थों जी, धर्म किरतब नहीं तिलमात हो ॥ आकरा इड लतो घणा जी, करतो जीवां री घात। प्र सुखीये दुखीयों हतो जी, माठो ध्यान रहतों दिनरात हो ॥ ८--उ वरदत रो वखांण : यह भ्राख्थान 'दुख विपाक सूत श्रध्याय ७ के भ्राधार पर है] एक वार ग्रामानुप्राम विहार करते हुए भगवान पाटली खंड नामक नगर मे षधारे ! सिद्धार्थ इस नगर का राजा था । इस नगर में गोचरी के लिए जति हए गौतम ने कोठ, श्वास, कास, शोय, भगन्दर दि सोलह भ्रसाध्य रोगों से युक्त अत्यन्त दीन-हीन श्रवस्था वाले एक मनुष्य को देखा । विभिन्न दिवसो मे विभिन्‍न मार्गों से पुर में प्रवेश करते हुए गौतम ने उसे विभिन्‍न स्थानों पर देखा और देख कर उन्होंने भगवान से उस रोगी के पूर्व भव का दृत्तान्त पुषा । भगवान ने कहा--“यह व्यक्ति पूर्वभव में विजयपुर नामक नगर मे कतकरथ राजा के राज्य में आयुर्वेद विश्ञारद धत्वन्तरि नामक वैद्य था । चिकित्सा में कोई दूसरा इसकी वरावरी करने भें समर्थ गही या । वहं रोगो के शमनार्थ रोगियो को विविध प्रकार के माँस, मदिरादि श्रमद्यो को खाने का उपदेश देता श्रौर स्वय उनका सेवन करता 1 श्रपनी ३२०० वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट भ्रायु के व्यतीत हो जाने पर मर कर वह छठी पुथ्वी के २८ सागर की स्थिति वाले नरक में नारकी पर्याय से उत्पन्न हुआ । “वहाँ की श्रायु समाप्त होने पर वह इस पाठली खण्ड नगर के ख्यातनामा सम्पन सार्थवाह सागर- दत्त की गगदत्ता भार्य की कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । उवरदत्त नामक यक्ष की श्राराधना से प्राप्त होने के कारण इसका नाम उ वरदत्त पडा । श्रारम्भ मे यह श्रदीन परिपूर्ण पचंद्धिय शरीरी तथा सर्वजन नयनानन्दकारी था । 'वितंव्यता के श्रनुसार इसके पिता सागरदत्त सार्थवाह की लवण समुद्र में मृत्यु हो गयी श्रौर पति-शोकविज्नला गगदत्ता भी मर गई । प्रव यह उ चरदत्तं वारा हौ गया ¦ राजपुरुपो ने इसे घर से निकाल दिया । भवयाभव्य, गम्यागम्यादि विवेकहीन होने के कारण ही यह कोढ श्रादि सोलह भयकर रोगो का रोगी हो दुख भोग रहा है । यह इसके पुर्वोजित पाप कर्मों के फल हैं, जिनको यह भोग रहा है ।” उवरदत्त पूर्व शव में धन्वतरि वैद्य था । उसकी चिकित्सा-प्रणाली बड़ी करूर थी । उसकी स्वयं की चृत्तियाँ भी बडी भयानक थी । उवरदत्त कौ दुगा का कारण उसकी उक्त मव कौ क्रूरता पुर्ण वैद्य- वृत्त शौर नृशंसता थी । स्वामीजी ने धन्वन्तरि वच के जीवन-पट को दस प्रकार निगितं किया है...




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