प्रतिनिधि रचनाएँ | Pratinidhi Rachanaen

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रोकने-टोकनेवालों कोई था नहीं बौर फिर चोर भी तो कहीं हरसे सहीं आये थे । फलत: सवबेरेका सुरज चढ़नेसे पहले ही हम लोगोंकी सोनेको लंका स्वाहा हो गयी--घन भी गया और जन भी । मैं उस समय नौ-दस वर्षका रहा होऊंगा। मुझे संसारके उतार- चढ़ावका कुछ भी पता नहीं था । और जब सत्रह-अठारह वर्षका हो जाने- पर आँखें खुली तो मैंने अपने चारों ओर दरिद्रता, निराशा, विद्वासघात ओर चिन्ताकी पराश्रया देखीं । माताजी अगणित गुणोंसे परिपूर्ण तो थी ही, पर सबसे बड़ा गुण उनमें यह था कि भगवान्‌ने उम्हे पुरुषोका-सा सबल मन दिया था । चाहे कितनी ही आपत्तियाँ सिरपर आ पड़ें, घबराहट या चिन्ता नामकी चीज़ उन्हे छू तक नहीं जाती थी । और उससे भी बडा एक और गुण था उनमें, घरमें चाहे कितनी ही गरीबी हो, दूसरोकी सहायता करनेसे वे कभी भी चूकती नहीं थी । मुझे याद है जब वें अपनी ड्योढ़ी में बैठकर चरखा कातती होती तो पीढेके पास आटेको एक डलिया भरकर रख लेती थी कि द्वारपर आया हुआ कोई अतिथि खाली न लौट जाये । नौ-दस बरसकी उम्र ही क्या होती है। क्या इतनी छोटी उम्रमें कोई बालक दुकानदारी कर सकता हैं? पर माताजी थी कि अपने स्वर्गीय पतिक गहीको त्यागनेका नाम नहीं लेती थो । जत्र कभो कोई बडा-वूदढा उनमे कहता --““लक्ष्मो, दूकान बेच -्वाचकर, बच्चोको लेकर वतन वयो नही चरी जाती ।'' तो उनका उत्तर होता ~ “स्वामीकी यादगारको कंसे मिटा डालें । ल्डके सथाने हो जायेंगे तो उसे संभार हो लेगे ।”” अपने सात और नौ वर्षके दोनों पुत्रोंके साथ वे दूकान आकर बैठ जातीं और सयाने बापको तरह उनके काम-काजमें सहायता करती रहती । मेरी माता 4




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