ओस के आंसू | Oss Ke Aansoo

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Oss Ke Aansoo by रघुवीर शरण - Raghuveer Sharan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ओत के आँसू सोचता था साधु हो जाऊँ कभी सोचता था तालाब में डूब मरूँ कभी विचार करता कि कलजुग की तरह बन जाऊँ श्रौर खो दूँ स्वयम्‌ को नशे में । सोचते सोचते दीपक को काफी देर हो गई । रात के लगभग दस बज गये परमहंस भी भजन करके निवृत्त हो गये पर दीपक के मन को नहीं थी । परमहंस समभक गये कि दीपक कुछ विशेष परेशानियों में है उन्होंने मधुरता से कहा-- घर जाश्रो भैया बहुत रात हो गई। ग्यारह वजने वाले हैं । ग्रापको कोई कष्ट तो नहीं दे रहा श्रापके भजन में भी बाधा नहीं डाल रहा चला जाऊँगा । मुक्ते दुःख नहीं दे रहे पर तुम्हें तो दुःख है भाई यह स्थान खतरनाक है धघकता हुम्रा इमशान भयानक रात श्रौर जहाँ तुम बैठ हो वहाँ तो साँपों का घर है वहाँ मत बैठो साँप कहाँ नहीं दुनिया में तो हर जगह साँप बिच्छू कानखजूरे ततेये कुत्ते भरे पड़े हैं काटते हैं डसते हैं दुख देते हैं। मनुष्य साँप बिच्छुप्नों के काटने से नहीं मरता मनुष्य मरता है श्रादमी के काटने से मनुष्य तड़पता है प्रादमी के डंक के ज़हर से । दीपक की बात सुनकर परमहंस ऐसे हो गये जैसे कोई मास्टर किसी विद्यार्थी के प्रदन का उत्तर न दे पाने की स्थिति में हो जाता है । वे मन ही मन में सोचने लगे-- दीपक की बात गढ़ है। यही तो वह रहस्य है जिससे संन्यस्त का जन्म हुआ हैं। यही तो वह दर्शन है जिससे मनुष्य संसार से मुक्त होता है। दुःखों की पराकाष्ठा ही सत्य को दिखाती है।.




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