मिट्टी की ओर | Mitti Ki Or
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
224
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
रामधारी सिंह 'दिनकर' ' (23 सितम्बर 1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं।
'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद 'राष्ट्रकवि' के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तिय का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।
सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया ग
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)५ इतिहास के दृष्टिकोण से
समय देव तथा बिहारी के लिए व्यय करते ये । नदं कविता की खबर
लेनेवाले कठिन श्रालोचक, पं» रामचन्द्रजी शुक्त थे ( जी पीछे चलकर
पन्तजी और प्रसादजी के प्रशंसक हो गए ) जिन्होंने पाषणड-परिच्छेद
नामक कविता में छायाबादकालीन रहस्यवादी कबियों की खिल्ली
उड़ाई थी और उन्हें ढोर मान कर पाठकों को संकेत दिया था कि इन्हें
“हॉक दो, न घूम-घूम खेती काव्य की चरें ।” इस प्रहार का बहुत ही गंभीर
एवं समीचीन उत्तर पं० सातादीन शुक्क ने श्रपनी व्योजस्विनी
कविता “'पाषणड-प्रतिषेध'” में दिया था जिसमें उन्होने विद्द्वर
शुक्कजी तथा उनके झनुयायियों को रूप से शल्य की श्मोर
जाने की सलाह दी थी ।
छायावादी कवियों की ओर से पक्त-सिद्धि का बीड़ा श्री रामनाथ-
लाल सुमनः, श्री कृष्णदेव प्रसादजी गौड़, परिडत शुकदेव बिहारी-
मिश्र और स्वर्गीय पं० अवध उपाध्याय ने उठाया था । पं० शास्तिप्रिय-
जी द्विवेदी और पं० नन्दुदुलारे जी बाजपेयी कुछ बाद को आए, किन्तु,
नइ कविता की पक्त-सिद्धि के संबंध में बाजपेयीजी ने भी बहुत ही
महत्त्वपूर्ण काये किया ।
सुकवि-किंकर नाम से आचाय द्विवेदी जी ने छायावाद पर जो
व््राक्रमश किया था उससे नई धारा के कवि और उनके प्रशंसक बहुत
ही -लुब्ध हो उठे थे तथा कड क्षों त्क वे इसका बक्ला पुराने -कथियों
की अनुचित निन्दा और छायावाद की अतिरंजित प्रशंसा करके लेते
रहे। संघष का जहर इस प्रकार फेला कि दायावाद्-धान्दोलन के
श्रग्रणी तथा शील श्रौर सौकुमाय्य॑ की मूर्ति, पं० सुमित्रानन्दनली
धम्त की भी धीरता छूट गई तथा उन्होंने झापनी पुस्तक 'वीणा” की
भूमिका ८ जो पीडे निकल दी गई) मे श्राक्रमण का उत्तर काफी
कटुता शौर -अहकार से दिया । अष्टादश हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन
के अवसर पर जब्र -साहिर्य-विषयक मंगलागप्रसाद- पुरष्कार श्रह्वैव, पर
User Reviews
No Reviews | Add Yours...