हमारे पूर्वज हमारे हितैषी | Hamare Puravaj Hamare Hitaishi

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Hamare Puravaj Hamare Hiteshi by सुबोध कुमार जैन, जुगल किशोर जैन

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आचार्य जुगल किशोर जैन 'मुख़्तार' - Acharya Jugal Kishor Jain 'Mukhtar'

जैनोलॉजी में शोध करने के लिए आदर्श रूप से समर्पित एक महान व्यक्ति पं. जुगलकिशोर जैन मुख्तार “युगवीर” का जन्म सरसावा, जिला सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। पंडित जुगल किशोर जैन मुख्तार जी के पिता का नाम श्री नाथूमल जैन “चौधरी” और माता का नाम श्रीमती भुई देवी जैन था। पं जुगल किशोर जैन मुख्तार जी की दादी का नाम रामीबाई जी जैन व दादा का नाम सुंदरलाल जी जैन था ।
इनकी दो पुत्रिया थी । जिनका नाम सन्मति जैन और विद्यावती जैन था।

पंडित जुगलकिशोर जैन “मुख्तार” जी जैन(अग्रवाल) परिवार में पैदा हुए थे। इनका जन्म मंगसीर शुक्ला 11, संवत 1934 (16 दिसम्बर 1877) में हुआ था।
इनको प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और फारस

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सुबोध कुमार जैन - Subodh Kumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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और दा पुत्रियां बाबू चन्द्र कुमार जी के हुए। इस समय पुत्र-पुत्रियों सहित उक्त बाबू साहब बहुत सुख से रहने लगे। बाबू देवकुमार जी का विद्या संस्कार कराया तथा कर्ण छेदन बहुत उत्सवयुक्त किया। इतना ही कर पाये थे कि कालबली की वक्रक्रौड़ा ने अपना प्रवेश आरंभ किया। बा० चन्द्र कुमार जी अस्वस्थ रहने लगे, यहां तक कि उनको पूर्ण विश्वास हो गया कि हम अब ज्यादा नहीं जीयेंगे और अपने बाद बाल ब्रच्चों के इन्तजाम के वास्ते बहुत चिंतित रहने लगे। धर्म की भी सुध आई और बहुत ब्रत सहित रहने लगे। कोर्ट ऑफ वार्ड का उनका इरादा हो गया, मगर जीते जी सरकार को कोर्ट देना पसन्द न था आखिर में मरण के एक दो दिन पहले निश्चित हो गया कि कोर्ट ऑफ वार्ड का इन्तजाम ठीक हो गया है तो बाबू जी की आत्मा को शांति मिली। बीमार रहकर सं० 1943 के करीब सारे कुटुम्ब को बिलखते हुए शोक सागर में डुबोकर स्वर्गवासी हो गए। चारों बच्चों का लालन पालन माता के निकट कोर्ट की निगरानी में बड़ी हिफाजत और आराम के साथ होने लगा। यद्यपि संसार में सब प्राणी काल व्यतीत करते हैं, मगर कोई महात्मा ऐसे हो जाते हैं, जो कालपूर्ण कर बिदा होने पर भी अपना यश संसार में छोड़ जाते हैं, और उक्त यशरूपी हस्ति पर सवार होकर सदैव जीते रहते हैं, इन्हीं को यश की माला और और जीव करते हैं और अनुकरण कर अपना कर्म करते हैं। बाबू देव कुमार जी भी ऐसे ही एक महात्मा थे। जहां आपके लगभग 10 वर्ष की अवस्था में पिता का वियोग हो गया तथा सिवाय माता के और कोई भी बड़ा शिखर नहीं रहा, यह समय कैसा कठिन है। विषम चोरों को चोरी करने का पूरा मौका आ लगा, तब भी बाबू साहब जैसे महात्मा को कौन भुला सकता है। उनको कोई बुरी आदत नहीं लगी बल्कि ज्ञान-चरित्र की दिन प्रतिदिन मरक्की ही होती रही। यहां आरा नगरस्थ जिला स्कूल में बाबू साहब इंगलिश तथा संस्कृत आदि विषय पढ़ने लगे। मैट्रीकुलेशन की परीक्षा में बैठे और पास हो गए। अब तक पढ़ना बहुत तेजी के साथ होता रहा, मगर इसकें बाद स्वास्थ कुछ बिगड़ गया, इसलिए पढ़ने में कुछ मन्दता आ पड़ी, पर अनुभव दिन दूना _ बढ़ता ही रहा। 17 वर्ष की अवस्था में बाबू साहब का विवाह, शुभ मुहूर्त सं० 1950 के करीब में बाबू लक्ष्मी चन्द्र जी 'रईस' की सुपुत्री अनूपमाला जी के साथ बड़े समारोह से हुआ। पूर्व पुण्य से आपको गुणवती रूपवती पत्नीश्री अनूपमाला बड़ी वल्लभा हो गई। यहां की पढ़ाई पूरी होने पर एफ० ए० के लिए बाबू साहब बांकीपुर गये। वहां कॉलेज में विद्याध्ययन शुरू किया और बराबर 1.)




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