कीर्ति - स्तम्भ | Keerti-stambh

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Keerti-stambh by श्री हरिकृष्ण प्रेमी - Shri Harikrishna Premee

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहुंला अंक १७ सूरजमल-बाप्पा रावल की राजगद्दी के गौरव को रक्षा में प्राणों को ग्राहुति देकर काकाजी ! हत्यारे का बेटा होने के कारण ही तो मेरे श्रन्त.करण से मानवता की सम्पूणं सद्प्वृत्तियां समाप्त नदी हो गई ? सग्रामसिहु-पापी का पुत्र पृण्य के माग पर श्रग्रसर होना चाहे तो समाज को उसका मागं प्रशस्त करना चाहिये । जयमल-इसका श्रथ हुभ्रा कि वेश्या की पूत्री को समाज मे भद्रकुल की कन्या के समान विश्वास गौर श्रादर प्राप्त होना चाहिये । सग्रामसिहू-प्रवरेय ! प्रत्येक व्यक्ति हमारे समाज का अंग है--समाज की शक्ति है । समाज के श्रगो को हम काट-काटकर फेकेगे श्रथवां उन्हें गलने-सडने देगे तो समाज दुबेल होगा । पृथ्वी राज-किन्तु दादा भाई, साँप का वेटा भी सॉप होता है, यह प्रकृति कानियमह। सूरजमल-इसी नियम के भ्रनुसार सिह का बेटा भी सिह होना चाहिये--तब महाराणा कुम्भा के पुत्र ऊदाजी कैसे हुए ? सग्रामसिह-प्रच्छा-बुरा होना केवलं वंश श्र माता-पिता के चरित्र पर निभेर नही होता, पूरवेजनम के सस्कार श्रौर इस जन्म की परिस्थितियां ओर वातावरण का प्रभाव भी पडता है । पृथ्वी राज-मे केवल इस जन्म को मानता ह सग्रामसिह-इसका श्रथें यह हुआ कि विदव-नियन्ता अन्धा है । ससार मे जो विषमता हृष्टिगोचर हो रही है--भ्रर्थात्‌ कोई निधन है, प्रभावों से पीडित है श्रौर कोई धनी है--सुखो के पालने मे भूलता है तो यह निष्कारण है? थ्वी राज-विषमता मनुष्यो के स्वाथं की सृष्टि है । वैभव श्रौर सत्ता के धनी, दीन-दु खी रौर पीडितो के कष्टो श्नौर प्रभावो को पूवं जन्म कै कर्मों का फल कहकर ग्रपने पापो को, भ्रन्यायो को न्याय-




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