कीर्ति - स्तम्भ | Keerti-stambh
श्रेणी : नाटक/ Drama
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
200
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पहुंला अंक १७
सूरजमल-बाप्पा रावल की राजगद्दी के गौरव को रक्षा में प्राणों को
ग्राहुति देकर काकाजी ! हत्यारे का बेटा होने के कारण ही तो
मेरे श्रन्त.करण से मानवता की सम्पूणं सद्प्वृत्तियां समाप्त नदी
हो गई ?
सग्रामसिहु-पापी का पुत्र पृण्य के माग पर श्रग्रसर होना चाहे तो समाज
को उसका मागं प्रशस्त करना चाहिये ।
जयमल-इसका श्रथ हुभ्रा कि वेश्या की पूत्री को समाज मे भद्रकुल की
कन्या के समान विश्वास गौर श्रादर प्राप्त होना चाहिये ।
सग्रामसिहू-प्रवरेय ! प्रत्येक व्यक्ति हमारे समाज का अंग है--समाज
की शक्ति है । समाज के श्रगो को हम काट-काटकर फेकेगे श्रथवां
उन्हें गलने-सडने देगे तो समाज दुबेल होगा ।
पृथ्वी राज-किन्तु दादा भाई, साँप का वेटा भी सॉप होता है, यह प्रकृति
कानियमह।
सूरजमल-इसी नियम के भ्रनुसार सिह का बेटा भी सिह होना
चाहिये--तब महाराणा कुम्भा के पुत्र ऊदाजी कैसे हुए ?
सग्रामसिह-प्रच्छा-बुरा होना केवलं वंश श्र माता-पिता के चरित्र
पर निभेर नही होता, पूरवेजनम के सस्कार श्रौर इस जन्म की
परिस्थितियां ओर वातावरण का प्रभाव भी पडता है ।
पृथ्वी राज-मे केवल इस जन्म को मानता ह
सग्रामसिह-इसका श्रथें यह हुआ कि विदव-नियन्ता अन्धा है । ससार
मे जो विषमता हृष्टिगोचर हो रही है--भ्रर्थात् कोई निधन है,
प्रभावों से पीडित है श्रौर कोई धनी है--सुखो के पालने मे भूलता
है तो यह निष्कारण है?
थ्वी राज-विषमता मनुष्यो के स्वाथं की सृष्टि है । वैभव श्रौर सत्ता
के धनी, दीन-दु खी रौर पीडितो के कष्टो श्नौर प्रभावो को पूवं
जन्म कै कर्मों का फल कहकर ग्रपने पापो को, भ्रन्यायो को न्याय-
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