सचित्र श्री स्थानांग सूत्र भाग - 1 | Sachitra Sthanang Sutra Bhag - 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
45 MB
कुल पष्ठ :
694
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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ऐसा प्रतीत होता है कि स्मरण रखने में संख्या प्रधान-शैली अधिक उपयोगी लगी हो, इस कारण
स्थानांग तथा समवायांग की रचना संख्या प्रधान शैली में की गई हो। यह शैली स्मरण रखने में सरल
और विषयों की विविधता के कारण अधिक ठुचिकर रही है। प्राचीनकाल में संख्या प्रधान शैली में
तत्त्व कथन करने की एक परिपाटी प्रचलित थी। बौद्ध आगम श्रिपिटिकों के अंगुत्तर निकाय और
पुग्गल पठ्जत्ति की सकलना भी इसी शैली में है तथा महाभारत, गीता आदि में भी संख्याप्रधान शैली
में अनेक विषयों का निरूपण हुआ है। स्थानांगसूत्र में वर्णित बहुत से विषय बौद्धों के अंगुत्तरनिकाय
में प्राय मिलती-जुलती शैली में आते है। प्रसिद्ध विद्वान् प्रो दलसुखभाई मालवणिया ने अत्यन्त
परिश्रम करके यह अनुशीलन किया है कि स्थानांग के तैकडो सन्दर्भ बौद्ध ग्रन्थों में बहुत ही समान
रूप मे विधमान हैं। इससे पता चलता है कि प्राचीनकाल में सख्या प्रधान शैली में ग्रन्थ रचना की शैली
प्रचलित थी और वह बहुत लोकप्रिय थी ।
स्थानागसूत्र के बहुत से सन्दर्भ अन्य आगमो के साथ भी प्राय समान रूप में मिलते हैं। जैसे
भगवतीसूत्र मे आयुबन्ध के छह प्रकार-जातिनाम निधत्तायु, गतिनाम निधत्तायु (शतक ६, उ ८) चार
जाति आशीविष (भगवती, शतक ८, उ २) आदि । केवली समुदघात, कर्मबन्ध, शरीर आदि का वर्णन
प्रज्ञापनासूत्र मे विस्तार से उपलब्ध है। नदी, पर्वत, समुद्र आदि से सम्बन्धित वर्णन जम्बूद्दीप प्रज्ञप्ति मे
आता है। स्वर मण्डल व वचनविभक्ति का पूरा प्रकरण अनुयोगद्वार मे ज्यो का त्यो मिलता है। इसके
अतिरिक्त प्रश्नव्याकरण, दशाश्रुतस्कध, उत्तराध्ययन, जीवाभिगमसूत्र आदि के अनेक प्रकरण व सन्दर्भ
स्थानागसूत्र मे उपलब्ध हैं । इसका कारण यही प्रतीत होता है कि स्थानांगसूत्र एक संग्रह सूत्र है। इसमें
सख्या के अनुसार अन्य आगमो मे आये अनेक प्रकरण सग्रहीत हुए है। आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी
म ने स्थानागसूत्र की विस्तृत प्रस्तावना मे इसकी सन्दर्भ सहित तुलनात्मक चर्चा की है।
इस प्रकार स्थानागसूत्र के विहगावलोकन से यह स्पष्ट होता है कि यह आगम एक बृहद् संकलन
है। इस सकलन से स्थानागसूत्र की महत्ता कम नही हुई, बल्कि इसकी उपयोगिता ओर रेचकता मेँ
वृद्धि हुई है और यह साधारण बुद्धि पाठक से लेकर गम्भीर विद्रानो तक के लिए उपयोगी सिद्ध
होता है।
व्याख्या व अनुबाद
स्थानागसुत्र मेँ विषयो की विविधता तो है, परन्तु इतनी जटिलता या गहनता नहीं है कि जिसे
समझने के लिए विस्तृत व्याख्या व भाष्य की जरूरत हो, अधिकांश विषय प्राय' स्पष्ट व सहज, सुगम
हैं। यही कारण रहा होगा कि अन्य आगमों की तरह इस पर किसी आचार्य ने निर्युक्ति अथवा भाष्य
नहीं लिखा है। आचार्य अभयदेव सूरि ने विक्रम सबत् ११२० मे इस पर एक विस्तृत सस्कृत टीका
का निर्माण किया है। इसमें दार्शनिक व आचार सम्बन्धी विषयो का स्पष्टीकरण भी किया है तथा अन्य
अनेक ग्रन्थो के सन्दर्भ उद्धृत कर उसे अधिक स्पष्ट रूप से समझाया है तथा विशद रूप में समझाने
के लिए बीच-बीच में प्राचीन व ऐतिहासिक दृष्दान्तों व उदाहरणो का भी उल्लेख किया है। वर्तमानं
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