चित्र-पट | Chitra - Pat

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Chitra - Pat by शम्भूदयाल जी सक्सेना - Shambhoodayal Saksena

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कक [ परिवतेन इरीश के हृदय मे जागृत होकर, उसके प्रत्येक काये में फैल चली । शव जब वदद किताबें लेकर बैठता है, तब्र इन्दु न जाने कहद्दा से आकर उसके मन में नई-नईं श्राशाएँ, नई-नई स्कीमें भर देती है । उसके मन में इन्छु बसन्त द्ोकर श्राई । ससार, सारी प्रकृति, घर-चादर; सब कुछ; सौंदयंमय मंगलमय आशा और अभिलापा के लोक में विचरण करनेवाला होगया । बी० ए० पास होने का समाचार आने से पद्दले इरीश का चिन्ता पड रहदी थी । वद्द चाहता था विवाह से पहले हो वह अपने जीवन का उद्देश्य , निश्चित कर ले । इन्दु जिस दिन 'आवे उस दिन वद अपने के उसका अनुरूप श्र येग्य जीवन-सहदचर साबित कर सके । पुरुष के अन्दर जो विशेष दाक्ति होती है, उसका प्रयक्त अज्ुभव उसे कराने के ठिये नारी वास्तव में एक सजीव दर्पण है। उसकी मधुर करूपना उसके अन्दर सोयी हुई अनेक भावनाओं के जायुत कर देती हैं, और ये सारी शक्तियाँ इस समय हरीग में प्रबल वेग से उत्पन्न हो चुकी थी । इन्दु के समक्ष अपनी योग्यता का प्रमाण देना ही जैसे उसके जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता थी । उसके भविष्य-जीवन का दारोमदार एक तरह से इन्दु के दिये हुए सार्टीफिकट पर ही अवठवित था। थ




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