अनेककांत १२ | Anekant 12
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
25 MB
कुल पष्ठ :
452
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
जैनोलॉजी में शोध करने के लिए आदर्श रूप से समर्पित एक महान व्यक्ति पं. जुगलकिशोर जैन मुख्तार “युगवीर” का जन्म सरसावा, जिला सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। पंडित जुगल किशोर जैन मुख्तार जी के पिता का नाम श्री नाथूमल जैन “चौधरी” और माता का नाम श्रीमती भुई देवी जैन था। पं जुगल किशोर जैन मुख्तार जी की दादी का नाम रामीबाई जी जैन व दादा का नाम सुंदरलाल जी जैन था ।
इनकी दो पुत्रिया थी । जिनका नाम सन्मति जैन और विद्यावती जैन था।
पंडित जुगलकिशोर जैन “मुख्तार” जी जैन(अग्रवाल) परिवार में पैदा हुए थे। इनका जन्म मंगसीर शुक्ला 11, संवत 1934 (16 दिसम्बर 1877) में हुआ था।
इनको प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और फारस
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)किरण १ ]
समन्तभद्र-वचनासूत
[कि
उपवासके दिन जिन कार्योके न करनेका तथा जिन
कार्योके करनेका विधान इस प्रन्थमें शिक्षावतोंका वर्णन
करते हुए किया गया है उनका वह विधि-निषेध यहीं
भी प्रोषध-नियम-विधायी पदके श्रंतगं त समना चाहिये |
मूल-एल-शाक-शाखा-करीर-कन्द-परचन-बीजानि ।
नामानि योऽति सोऽयं सवि्तविरतो दयामर्ति;१४१
जो दयालु ( गृहस्य ) मृग, फल, शाक, शाखा
( कपल ) करीर गांठ-करों ), कन्द, फूल और बीज
इनको कच्चे ८ अनग्नि पक्व श्रादि श्रप्राशक दशमे )
नहीं खाता वह सचि तबिरत' पदका-पांचवीं प्रतिमाका-
धारक श्रावक होता रै ।
व्याख्या - यहाँ 'श्रामानि” श्रौर 'न भत्ति ये दो पद
खास तौरसे ध्यानमें लेने योग्य हें । “अआमानि” पद
श्रपक्व पुवं अप्रासुक श्र्थका योतक है और न श्त्ति”
पद भरणे निषेधका वाचक दे, भर इसलिये वह
निषेध उन श्रप्राखुक ( सचित्त ) पदार्थोके एकमात्र भक्तण-
से सम्बन्ध रखता है--स्पशंनादिकसे नहीं १-जिनका इस
कारिकां उश्लेख है । वे पदार्थ वानस्पतिक हैं, जलादिक
नहीं श्नौर उनमें कन्द-मुल भी शामित्र हे । इससे यह स्पष्ट
जाना जाता है कि ग्रन्थकार महोदय स्वामी समन्तभद्रकी
दष्टिमें यह ॒भावकपद ( प्रतिमा ) श्रग्रायुक वनस्पतिके
भक्तण-त्याग तक सीमित हैं, उसमें अप्रासुकको प्रा धुक
करने श्रौर प्रासुक वनस्पतिके भक्षणका निपेघ नहीं दै ।
श्रा्ुकस्य भक्वणो ना पापः इस उक्ति श्रनुसार प्राक
८ श्रचित्त ) के भणे कों पाप भी नहीं होता । अप्रा
सुक कैसे भरासुक बनता श्रथवा किया जाता दै इसका कुछ
विशेष वशंन ८९ त्रीं कारिकाकी भ्यास्यामें क्या जा
चुशादै।
अन्नं पानं खाय लेय नाऽश्नाति यो विभाव्यम् ।
स च रात्रिशक्तविरतः सत्वेष्वुकम्पमानमनाः।१४२
“जो श्रावक रात्रिके समय श्न्ने-- भ्न तथा श्रघ्रा-
दिनिर्मित या विमिश्रित भोजन-,पान-जल-दुग्ध-रसावरिक,
१ भद्वणोऽश्र सचित्तस्य नियमो न तु स्पशने ।
तत्स्वहस्तादिना कृत्वा प्रासुकं चाऽत्र भोजयेत् ॥
-- लाटीसंहिता ७-१७
खाद्य २ अन्नभिन्न दूसरे खानेके पदार्थ जेसे पेवा, बर्फी,
लौजात, पाक, मेवा, फल, मुरब्वा इलायची, पान, सुपारी
झादि; श्रौर लेद्य चटनी, शबत, रवदी आदि ( इन चार
प्रकारके भोज्य पदार्थौ ) को नहीं खाता दै वह प्रादियों-
में दयाभाव रखने वाला 'राश्रिमुक्तिविरत' नामके छूटे
पद्का धारक श्रावक होता है ।'
व्यास्या-- यहां “सरेष्वनुकम्पमानमनाः' षदका जो
प्रयोग किया गया है वह इस व्रतके अनुष्ठानर्मे जीवो
पर दयादष्टिका निर्देशक है; और 'सत्वेषु” पद चू कि भिना
किसी विशेषणके प्रयुक्त हुआ है इसलिए उसमें अपने
जीवका भी समावेश होता हे । रात्रिभोजनके प्यागते
जहां दूसरे जीवोंकी अनुकम्पा बनती दे वहां अपनी भी
श्रनुकम्पा सथनी दे--रात्रिको भोजनकी तलाशमें निकले
हट श्रनेकां विरले जन्तुश्रोके भोजनके साथ पेम चले
जानेसे अनेक प्रकारके रोग उश्पन्न होकर शरीर तथ।
सनकी शुद्धिको जो हानि पहुँचाते दें उससे अपनी
रका होनी दै । शेष इन्द्ियाका जो संयम बन आता है
आर उससे श्राग्माका जो विकास सधवा ह उसकी लो बात
ही अलग हैं । इसीसे इस पदके पू्वमें बहुधा लोग अज्ञादि-
कै स्यागरूपमे खण्डशः इस वतका अभ्यास करते हें ।
मलबीजं मलयोनिं गलन्मलं पूतिगन्धि बीभत्सम् ।
पश्यन्नङ्गमनङ्गादिरमति यो ब्रह्मचारी सः ॥१४३
जा श्रावक शरीरको मलनीज- शक शोणिनादि-
मन्म्मय कारणोमे उत्पन्न हुआ --मलोनि--मलक।
उत्पत्तिस्थान--,गलन्भल मलका मरना -- दुगन्ध-गुतः
श्रौर बभन्स-- पृणात्मक-देश्बता हु कामसे--मंधुन
कर्मसे-बिरक्ति धारण ५रता दे वह ब्रह्म चार: पद (सात-
वीं प्रतिमा ) का धार होता दे ।”
त्याख्या यहा कामके जिस भ्ंगके साथ रमण-
करके संसारी जीत्र श्रार्म-विस्मरण किये रहते दें उसके
स्वरूपका अच्छा विश्लेषश करते हुए यह दृशाया गया
है कि वह श्रंग विवेकी पुरुषोंके लिए रमने योग्य कोई वस्तु
२ खाद्यके स्थान पर कहीं कहीं स्वाद्य' पाट मिता
है जो समुचित प्रतीत नहीं होता । टीकाकार प्रभाचम्द्रने
मी खाच पद्का प्रह करके उसका अथं मोदकादि
किया हि जिन्दै चरज्ञनिक्र ममभना जाहिष् ।
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