कर्मनाशा की हार | Karmnasha Ki Har
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5.01 MB
कुल पष्ठ :
190
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about शिवप्रसाद सिंह - Shivprasad Singh
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कमनाशाकी हार 1 मुखिया जी फिर जरा बढ़कें चालते-- क्या लोछार पड़ेगी जी दादाके पास तो पाँच गाय थीं एकसे एक दो थान दृह हें ता पेचसंरी बाल्से मर जाती थी | यहाँ तो इस लाडका दूध पंचना ही नहीं | शा फिर साल-नारह महीन हमेशा मिलता मा कहाँ है हम गराबां का ? व बह पुराने जमानेकी बात कहाँ रही पांडेजी सुश्धिया कहता आर संकेतीसि शब्दोंमं मिचें को तिताई भग कर जाता । काले काल काकुलां चाला नवजवान कुलदोप उसे फ्ूटों खां नहीं सुद्दाता किन्तु भंरों पॉडेकें डरस वह कुछ पाता | भरा पाँड़े दिन मर बरामदेसं बंठकर रुइस निकालते सूत तंबार करते शोर अपनी तकलीं नचा-नचाकर जजमानी चलाते प्रा देख देते सत्यनारायणकी कथा बाँच देते श्र इससे जा कुछ मिलता कुछदीपकी पढ़ाई श्ार उसके कपड़ेलसे आदि में खर्च दो जाता | यद सब कुछ मरमर कर किया था इसी दिन का--पाड़ेकी श्रॉँखों में प्यास छा गई लड़के ने उन्हें किसी आओरका नहीं रग्वा । यहाँ त्राफत मची हैं पता नहीं कहाँ भाग कर छिपा है । राम जाने केसे हो सूखी आँखों से दा बूदें गिर पड़ीं अपने से ते कौर भी नहीं उठा पाता था भूखा वेठा होगा कहीं बे ठे-सरें दम कया करें । पॉड़िमें बैसाखी उठाई । बगलकी चारपाई तक गये आर धम्मसे गये । दोनों दाथोंमें मुद्द छिपा लिया दर चुप लेटे रहे | 3 पूरी आकाश पर खुरज दो लद्ठे ऊपर चढ़ द्ाया था । काले-काले बादलोंकों दॉइ-घूप जारो थी कभी-कमी हल्की इवाके साथ वूदे विखर जातीं | दूर किनारों पर बाढ़कें पानीकी टकराहट हवासें गूँज उठती । भेंरों पॉड़े उसी तरह चारपाई पर लेटे ऑआँगनकी आओर देख रहे थे | बीचों
User Reviews
No Reviews | Add Yours...