कर्मनाशा की हार | Karmnasha Ki Har

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Karmnasha Ki Har by शिवप्रसाद सिंह - Shivprasad Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कमनाशाकी हार 1 मुखिया जी फिर जरा बढ़कें चालते-- क्या लोछार पड़ेगी जी दादाके पास तो पाँच गाय थीं एकसे एक दो थान दृह हें ता पेचसंरी बाल्से मर जाती थी | यहाँ तो इस लाडका दूध पंचना ही नहीं | शा फिर साल-नारह महीन हमेशा मिलता मा कहाँ है हम गराबां का ? व बह पुराने जमानेकी बात कहाँ रही पांडेजी सुश्धिया कहता आर संकेतीसि शब्दोंमं मिचें को तिताई भग कर जाता । काले काल काकुलां चाला नवजवान कुलदोप उसे फ्ूटों खां नहीं सुद्दाता किन्तु भंरों पॉडेकें डरस वह कुछ पाता | भरा पाँड़े दिन मर बरामदेसं बंठकर रुइस निकालते सूत तंबार करते शोर अपनी तकलीं नचा-नचाकर जजमानी चलाते प्रा देख देते सत्यनारायणकी कथा बाँच देते श्र इससे जा कुछ मिलता कुछदीपकी पढ़ाई श्ार उसके कपड़ेलसे आदि में खर्च दो जाता | यद सब कुछ मरमर कर किया था इसी दिन का--पाड़ेकी श्रॉँखों में प्यास छा गई लड़के ने उन्हें किसी आओरका नहीं रग्वा । यहाँ त्राफत मची हैं पता नहीं कहाँ भाग कर छिपा है । राम जाने केसे हो सूखी आँखों से दा बूदें गिर पड़ीं अपने से ते कौर भी नहीं उठा पाता था भूखा वेठा होगा कहीं बे ठे-सरें दम कया करें । पॉड़िमें बैसाखी उठाई । बगलकी चारपाई तक गये आर धम्मसे गये । दोनों दाथोंमें मुद्द छिपा लिया दर चुप लेटे रहे | 3 पूरी आकाश पर खुरज दो लद्ठे ऊपर चढ़ द्ाया था । काले-काले बादलोंकों दॉइ-घूप जारो थी कभी-कमी हल्की इवाके साथ वूदे विखर जातीं | दूर किनारों पर बाढ़कें पानीकी टकराहट हवासें गूँज उठती । भेंरों पॉड़े उसी तरह चारपाई पर लेटे ऑआँगनकी आओर देख रहे थे | बीचों




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